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बौद्ध वाङ्मय में मङ्गल की अवधारणा
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९. 'निब्बानसच्छिकिरिया च' अर्थात् निर्वाण का साक्षात्कार उत्तम मंगल है। निब्बान शब्द नि उपसर्ग पूर्वक वान शब्द के योग से निष्पन्न है। वान का अर्थ है तृष्णा और तृष्णा से निर्गत होने के कारण निर्वाण कहा जाता है'वानतो निक्खन्तं ति निब्बानं, नत्थि एत्थ तण्हासङ्घातं वानं निग्गतं वानं तस्मा ति निब्बानं (अट्ठ. प्र. ३२२) जिसमें सभी वर्त्मदुःखसन्ताप समाप्त हो जाते हैंउसे निर्वाण कहते हैं, 'निब्बानं ति एत्था निब्बायन्ति सब्बे वट्टदुक्खसंतापा एतस्मिं ति निब्बानं' (प.दी. पृ. २०)।
निर्वाण प्रपञ्चोपशम है, परम नैश्रेयस् है, निर्वाण अमोष धर्म है (अमोसधम्मं निब्बानं), यह परमसुख है (निब्बानं परमं सुखं) यह अनिमित्त है। अप्रणिहित और शून्य है। इतिवृत्तक में दो प्रकार के निर्वाण का निरूपण मिलता है। सउपादिसेस निब्बानधातु तथा अनुपादिसेसनिब्बानधातु
दुवे इमा चक्खुमता पकासिता
निब्बान धातु अनिस्सितेन तादिना । एका हि धातु इथ दिट्ठधम्मिका
सउपादिसेसा भवनेत्तिसङ्ख्या। अनुपादिसेसा पन सम्परायिका यम्हिनिरुज्झन्ति भवानि सब्बसो ।।
(इतिवृत्तक, निब्बानधातुसुत्त) निर्वाण में समस्त प्रपञ्च का अतिक्रमण हो जाता है-जहाँ जल, तेज, वायु की पहुँच नहीं है, वहाँ तारकादि द्योतित नहीं होते, न आदित्य प्रकाशित होता है। वहाँ चन्द्रमा नहीं चमकता। वहाँ अँधेरा भी नही है। जब मुनि स्वयं अपने को जानता है, वह रूप और अरूप और दुःख से मुक्त हो जाता है
यत्थ आपो च पठवी तेजा वायो न गाधति । न तत्थ सुक्का जोतन्ति आदिच्चो नप्पकासति ।। न तत्थ चन्दिमा भाति तमो तत्थ न विज्जति । यदा च अत्तना वेदि मुनि सो तेन ब्राह्मणो ।। अथ रूपा अरूपा च सब्बदुक्खा पमुच्चति ।।
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