________________
श्रमणविद्या- ३
१. माता-पिता अर्थात् पितरों के उपस्थापन (सेवा) को भगवान् बुद्ध ने उत्तम मङ्गल कहा है— 'माता - पितु-उपट्ठानं' । अपनी सन्तान के प्रति माता-पिता के हृदय में वात्सल्य की भावना सर्वदा वर्त्तमान रहती है और वे अपनी सन्तान की सुख-समृद्धि के लिए सर्वदा सचेष्ट रहते हैं । अतः सन्तान के लिए अनिवार्य है कि सन्तान पूरी निष्ठा के साथ माता-पिता का भरण-पोषण करे ताकि वे विप्रसन्न जीवन यापन कर सकें। जो सन्तान माता-पिता की निष्ठापूर्वक सेवा नहीं करती है, वह पाप के भागी होती है। माता सर्वदा अनुकम्पा करने वाली होती है, वह प्रतिष्ठा है, वह क्षीररूपी प्रथम रस की दायिका है। स्वर्ग का मार्ग है। प्रथम क्षीररूपी रस का पान कराने वाली, विपत्तियों से रक्षा करने वाली, पुण्य को उपसंहृत करने वाली माता ही है
१८
अनुकम्पा पतिट्ठा च पुब्बेरसददी च नो । मग्गो सग्गस्स सोपानं माता ते वरते इसे ।।
Jain Education International
पुब्बे रसददी गोत्ती माता पुपसंहिता । मग्गो सग्गस्स लोकस्स माता तं वरते इसे ।।
माता सन्तान रूपी फल की प्राप्ति के लिए अनेक दुष्कर क्रियाएँ करती हैं । पुत्रफल की कामना करती हुई वह देवताओं को नमस्कार करती है, नक्षत्रों के बारे में पूछती है, ऋतु तथा संवत्सर के बारे में पूछती है। ऋतुनी होने पर गर्भ स्थापन होता है उससे वह दोहदवाली होती है और सुहृदया कहलाती है । वर्ष भर या उससे कम समय तक गर्भधारण किए रहकर, वह सन्तान को जन्म देती है, उसीसे वह जननी ( जनिका ) कहलाती है। स्तन पान कराकर, गीतगाकर, अंगों का संचालन कर वह रोती हुई सन्तान को सन्तुष्ट करती है, इसलिए वह संतुष्ट करने वाली कहलाती है। माता ममता के साथ अबोध बच्चे को घोर वात-आतप (हवा, धूप) से रक्षा करती हुई पुत्रों का पोषण करती है । - पिता का जो धन होता है, वह दोनों की रक्षा करती हुई, यह मेरे पुत्र का धन होगा, समझकर उसकी रक्षा करती है । इस प्रकार पुत्र को विभिन्न कर्म करने की शिक्षा देती हुई कष्ट पाती है। इस प्रकार कठिनाई से संपोषित पुत्र जब माता-पिता की सेवा नहीं करता है, तब वह निरयलोक में जाता है ।
माता
आकङ्खमाना पुत्तफलं देवताय नमस्सति । नक्खत्तानि च पुच्छति उतुसंवच्छरानि च ।।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org