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बौद्ध वाङ्मय में मङ्गल की अवधारणा
सच्चं वे अमतावाचा एस धम्मो सनन्तनो ।
सच्चे अत्थे च धम्मे च आहु सन्तो पतिट्ठिता ।।१।। किसी को भी प्रियवचन का ही प्रयोग करना चाहिए जिसे दूसरे लोग आनन्दपूर्वक ग्रहण कर सकें। वह पापरहित हो दूसरों के लिए प्रियवचन का प्रयोग करता है। सत्य ही अमृत वचन है, यही सनातन धर्म है। सत्य, अर्थ और धर्म में सन्त प्रतिष्ठित रहते हैं।
इस प्रकार बुद्ध, प्रत्येक बुद्ध तथा बुद्ध के सुयोग्य शिष्य सुभाषित का प्रयोग करते हैं। धर्मवचन, प्रियवचन तथा सत्यवचन का प्रयोग को ही सुभाषित कहते हैं। २. सामाजिक आचारदर्शन
भगवान् बुद्ध मानव-कल्याण के प्रति विशेष रूप से अभिरुचि रखते थे और वस्तुतः उन्होंने उन सिद्धान्तों को अभिगृहीत किया जो मानव समुदाय के सामाजिक जीवन के लिए लाभकारी है। हम यह पाते हैं कि भगवान बुद्ध तात्त्विक गूढ़ समस्याओं के प्रति सम्बद्ध उतने नहीं थे जितना कि वे समाज में नैतिक आदर्शों के समुन्नयन में प्रयत्नशील थे। समस्त बुद्ध की धर्मदेशना से हमें यही शिक्षा मिलती है कि कहींभी उन्होंने तात्त्विक दृष्टिकोण का प्रज्ञापन नहीं किया। पोट्ठपाद के द्वारा पूछे गये तात्त्विक एवं गूढ़ प्रश्नों को उन्होंने व्याकृत नहीं किया और उन प्रश्नों को अव्याकृत इसलिए कहा क्योंकि इस प्रकार के प्रश्न न अर्थयुक्त हैं न धर्मयुक्त, न आदि ब्रह्मचर्य के लिए उपयुक्त हैं, न निर्वेद के लिए हैं, न वैराग्य के लिए न निरोध के लिए, न उपशम के लिए, न अभिज्ञा के लिए, न परमार्थज्ञान एवं सम्बोधि के लिए और न निर्वाण के लिए ही हैं। भगवान् बुद्ध अनन्त करुणा के प्रतिमान थे, संसार के सभी जीवों के प्रति वे दयावान् थे। समाज में परिव्याप्त रूढ़ियों, अन्धविश्वासों को निरस्त कर उन्होंने विशुद्ध, नैतिक जीवन-यापन के समुन्नत मार्ग को प्रशस्त किया। गृहस्थ जीवन तथा मठीय जीवन दोनों के लिए उन्होंने सामाजिक आचारदर्शन का प्रवर्तन किया तथा मनुष्यों एवं उनके सामाजिक सम्बन्धों के बीच उन भावनाओं और विचारों को स्थापित किया जो विश्वबन्धुता, दयालुता तथा परस्पराश्रयिता पर आश्रित था। उन्होंने मधुर सामाजिक भावसंवेगों के संवर्धन और संपोषण के लिए आग्रह किया ताकि वे एक दूसरे के साथ सुमनस्क और विप्रसन्न हो रह सकें।
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