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बौद्ध वाङ्मय में मङ्गल की अवधारणा
८. कार्य में दक्ष होना, शिल्पनिपुण होना (सिप्पञ्च)।
९. शीलसम्पन्न होना, व्यवहार कुशल होना (विनयो च सुसिक्खितो) ।
१०. सत्याश्रित सुभाषित का प्रयोग करना ( सुभासिता च या वाचा) ।
११. माता-पिता का उपस्थान (सेवा) करना ( मातापितु - उपट्ठानं ) ।
१२. परिवार का परिरक्षण, स्त्री- बच्चों को आश्रय प्रदान करना, पुत्रदारसंग्रह (पुत्तदारस्स सङ्गहो) ।
१३. अनाकुल अर्थात् द्वन्दरहित कर्म करना ( अनाकुला च कम्पन्ता ) ।
१४. दूसरों के कल्याण के लिए दान देना (दानञ्च) ।
१५. धर्माचरण करना, काय, मन तथा वचन से प्रशस्त आचरण करना (धम्मचरिया च ) |
१६. कुटुम्बों, सम्बन्धियों तथा अन्य सम्बद्ध लोगों अर्थात् परिचारकों एवं अनुयायिवर्गों को सहयोग प्रदान करना (जातकानं च संगहो ) ।
१७. वैसे कर्मों को करना जो दूसरों के लिए हानिकर न हो, अनवद्य कर्मों को करना (. अनवज्जानि च कम्मानि) ।
१८. पाप से विरति
१९. कार्यों, शब्दों तथा चित्त में बुरे विचारोंका स्थगन ( अरतीविरतीपापा) ।
२०. मद्यपान न करना, अथवा मादक एवं मदनीय द्रव्यों के साहचर्य से विरमण ( मज्जपाना च संयमो ) ।
२१. धर्मों में प्रमाद न करना (अप्पमादो च धम्मेसु) ।
२२. दूसरों को गौरव प्रदान करना, आदरणीयों को आदर देना (गारवो च) ।
२३. विनम्र होना, विनयिता से युक्त होना (निवातो च) ।
२४. सुन्दर एवं अनवद्य साधनों से अर्जित वस्तुओं से संतुष्ट रहना, दूसरों की वस्तुओं में स्पृहा न करना ( सुन्तुट्ठी च) ।
२५. कृतज्ञता ज्ञापित करना ( कतता ) ।
२६. समय-समय पर धर्म-श्रवण करना ( कालेन धम्मसवनं) । २७. क्षान्ति (धैर्यवान्) होना, सहिष्णुता, तितिक्षा ( खन्ती च ) ।
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