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श्रमणविद्या-३
यः प्रतीत्यसमुत्पादं प्रपञ्चोपशमं शिवं । देशयामास सम्बुद्धस्तं बन्दे वदतां वरं ।।
___ (नागार्जुन मूलमध्यमकारिका१)। यः सर्वथा सर्वहतान्धकरः संसारपङ्काज्जगदुज्जहार । तस्मै नमस्कृत्य यथार्थशास्त्रे शास्त्रं प्रवक्ष्याम्यभिधर्मकोशम् ।।
(वसुबन्धु, अभिधर्मकोश १।१)। बौद्धवाङ्मय में विशेषकर पालि वाङ्मय में मङ्गल क्या है? तथा मङ्गल किसे कहते हैं? इस प्रश्न का समाधान करते हुए भगवान बुद्ध ने मङ्गल के विविध रूपों का वर्णन किया है। मङ्गल प्रसन्नता तथा विप्रसन्न जीवन का मूल कारण है। यह एक उत्तम मार्ग या साधन है जिसके द्वारा लोगों के जीवन में प्रसन्नता तथा सफलता की प्राप्ति होती है। प्रत्येक व्यक्ति मङ्गल की कामना करता है। कल्याण की अपेक्षा करता है। जीवन में मङ्गल का अधिगम किसी के आशीर्वचन नहीं, अपि तु शुभात्मक कर्म, सत्यनिष्ठा, सदा-चरण तथा सम्यक् कर्म से ही संभव है। बौद्ध जीवन पद्धति स्वयंकृत शुभात्मक कर्मों पर निर्भर है।
भगवान् बुद्ध ने जिन अड़तीस प्रकार के मङ्गलों का प्रज्ञापन किया है वे इस प्रकार हैं१. मूों का असाहचर्य (असेवना च बालानं)। २. गुणवान् तथा शीलसम्पन्न पुरुषों एवं पण्डितों का साहचर्य (पण्डितानं च
सेवना)। ३. पूजनीय जनों का सम्पूजन (पूजा च पूजनीयान)। । ४. वैसे स्थान मे रहना जहाँ पण्डित, शीलवान् तथा गुणज्ञ लोगों का अधिवास
हो और जहाँ सम्यक् आजीविका के सुन्दर साधन एवं मार्ग प्रशस्त हों
(पतिरूपदेसवासो)। ५. पूर्व में किया गया पुण्यकर्म (पुब्बे च कतपुञ्जता)। ६. शारीरिक तथा मानसिक रूप से स्वयं को अधिष्ठित करना (अत्तसम्मापणिधि)। ७. बहुश्रुत होना, बहुविस्तीर्ण अनुभवों के आधार पर तत्त्विक दृष्टि को प्राप्त करना
(बाहुसच्चं)।
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