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श्रमणविद्या-३
इनकी प्रमुख कृति ‘उवासयज्झयण' प्राचीन काल से काफी लोकप्रिय रही है। सागारधर्मामृत के रचयिता पण्डित आशाधर जी (विक्रम की १३ वीं शती) ने अपने ग्रन्थ की टीका में वसुनन्दि के इस ‘उवासयज्झयण' की चार गाथायें बड़े ही आदरोल्लेख के साथ उद्धतृ की हैं। वसुनन्दि ने अपने इस ग्रन्थ के मंगलाचरण में कहा है कि जिन्होंने भव्य जीवों के लिए श्रावक और मुनि (सागार
और अनगार) धर्म का उपदेश दिया है, ऐसे श्री जिनेन्द्रदेव को नमस्कार करके, मैं (वसुनन्दि) श्रावकधर्म का प्रतिपादन करता हूँ। यथा
सायारो णायारो भवियाणं जेण देसिओ धम्मो ।
णमिऊण तं जिणिंदं सावयधम्मं परूवेमो ।।२।। आगे कहा है कि 'विपलाचल पर्वत पर इन्द्रभूति ने श्रेणिक को जिस प्रकार से श्रावकधर्म का उपदेश दिया है, उसी प्रकार गुरू परम्परा से कहे जाने वाले श्रावकधर्म को सुनो। इसके आगे श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं (स्थानों) का विवेचन किया है। और प्राय: इन्हीं को आधार बनाकर ही श्रावकधर्म का यही प्रतिपादन किया है। प्रतिमाओं आदि का जो प्रतिपादन यहाँ जिस विशेषता से किया है, वैसा दिगम्बर परम्परा के अन्य ग्रन्थों में पूर्ण रूप में नहीं मिलता, किन्तु इसके कुछ विषयों का विवेचन तो सीधे आगमिक परम्परा के समान है, विशेषकर अर्द्धमागधी के उपासगदसाओ के समान। इस ग्रन्थ में प्रतिपादित अनेक विषयों में ध्यान का स्वरूप, जिनपूजा, जिनबिम्ब, प्रतिष्ठा, व्रतों का विधान, दान के पांच अधिकार आदि प्रमुख हैं। इसके अतिरिक्त इनकी महत्वपूर्ण कृतियों में प्रतिष्ठासारसंग्रह, मूलाचार की आचारवृत्ति, आप्तमीमांसा वृत्ति तथा जिनशतक टीका उपलब्ध हैं। ये सभी संस्कृत भाषा में रचित हैं।
इनके साहित्य के अध्ययन से यह स्पष्ट है कि इन्होंने प्राचीन सैद्धान्तिक परम्पराओं को जीवित रखने का प्राणप्रण से प्रयत्न किया, इसीलिए इनके नाम के साथ सैद्धान्तिक विशेषण भी प्रसिद्ध है। ११. आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त- चक्रवर्ती
विक्रम की ११वीं शती के सुप्रसिद्ध जैन सिद्धान्तवेत्ता आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती गंगवंशीय राजा राचमल्ल के प्रधानमंत्री एवं सेनापति
१. उवासयण्ज्झ यणं गाथा ३. २. दंसण-वय-सामाइयं-पोसह-सचित्त-राइभत्ते य ।
बंभारंभ-परिग्गह-अणुमण उद्दिट्ठ-देसविरयम्मि ।।४।। एयारस ठाणाई...... ।।५।।
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