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शौरसेनी प्राकृत साहित्य के आचार्य एवं उनका योगदान
ग्रन्थकार ने इन समस्त प्रश्नों का उत्तर तर्कपूर्ण और सुबोध शैली में अंकित किया है। वे कहते हैं— जो मनुष्य बाह्य और आभ्यन्तर समस्त परिग्रह को ग्रहण नहीं करता, वह मनुष्य न तो स्त्रीजन के वश में होता है, न काम के अधीन होता है और न मोह और इन्द्रियों के द्वारा ही वह जीता जा सकता है ।। २८२ ।।
१०. आचार्य वसुनन्दि
श्रावक एवं श्रमणधर्म तथा जैन सिद्धान्तों के महान् वेत्ता एवं लेखक के रूप में आचार्य वसुनन्दि का शौरसेनी प्राकृत और संस्कृत साहित्य के विकास में महत्वपूर्ण योगदान है। इनका उपलब्ध साहित्य ही इनका जीवन-दर्शन है, अन्यथा इनके जीवन के विषय में उपलब्ध जानकारी बहुत ही अल्प है।
वर्तमान में 'वसुनन्दि श्रावकाचार' नाम से प्रसिद्ध शौरसेनी प्राकृत का ग्रन्थ ‘उवासयज्झयणं’ (उपासकाध्ययनम्) की प्रशस्ति के अनुसार स्वसमय और परसमय के ज्ञाता आचार्य कुन्दकुन्द की परम्परा में श्रीनन्दि नामक आचार्य हुए हैं। इनके शिष्य नयनन्दि और इनके शिष्य नेमिचन्द्र के प्रसाद से वसुनन्दि ने इस ग्रन्थ की रचना की ।
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यद्यपि इस प्रशस्ति में इनके इस ग्रन्थ का परिमाण ६५० गाथा - प्रमाण लिखा है, किन्तु वर्तमान में मात्र ५४६ गाथायें उपलब्ध हैं। इनके समय का उल्लेख नहीं मिलता। कुछ विद्वान् इनका समय १२वीं शती का पूर्वार्द्ध अथवा ११वीं शती का अन्तिम भाग मानते हैं किन्तु इस ग्रन्थ की भाषा, शैली और विषय के प्रतिपादन आदि के गहन अध्ययन के आधार पर वे इससे भी काफी पूर्व ८- ९ वीं शती के आचार्य प्रतीत होते हैं। 1
१. आसी ससमय-परसमयविदु सिरिकुंदकुंदसंताणे । भव्वयणकुमुयवणसिसिरयरो सिरिणंदिणामेण । । ५४० ।। सिस्सो तस्स जिदिसासण रओ ६६६........।
यदिणाममुणिणो भव्यासयादओ ।। ५४२ ।। सिस्सो तस्स जिणागम जलणिहिवेलातरंगधोयमणो । संजाओ सयलजए विक्खाओ मिचन्दु त्ति ।। ५४३ ।। तस्स पसाएण मए आइरिय परपरागयं सत्यं ।
वच्छल्लयाए रइयं भवियाणमुवासज्झयणं ।।५४४।।
छच्च सया पण्णसुत्तराणि एयस्स गंथपरिमाणं । ६५० | गाथा प्रमाण
वसुदिणा णिबद्धं वित्थयरियव्वं वियड्ढेहिं ।। वसुनन्दि श्रावकाचारः गाथा - ५४६ ।।
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