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श्रमणविद्या-३
वनवास देश आकर आचार्य पुष्पदन्त ने जिनपालित को दीक्षा देकर बीस सूत्रों (बीस प्ररूपणाओं से संबद्ध सत्प्ररूपणा के १७७ सूत्रों) की रचना की, तथा इन्हें जिनपालित को पढ़ाकर उन सूत्रों के साथ आ. भूतबलि के पास भेजा। आचार्य भूतबलि ने इन सूत्रों को देखकर तथा जिनपालित के मुख से आ. पुष्पदन्त की अल्पायु जानकर 'महाकम्मपयडि पाहुड' के व्युच्छेद की चिन्ता से 'द्रव्यप्रमाणानुगम' का प्रारम्भ करके आगे की रचना की। इस प्रकार इस ‘खण्ड सिद्धान्त' की अपेक्षा उसके कर्ता भूतबलि और पुष्पदन्त प्रसिद्ध हुए।
धवला में षटखंडागम की रचना का इतिवृत्त इतना ही मिलता है। इन्द्रनन्दि के श्रुतावतार में इसके आगे के विवरण में कहा है कि सम्पूर्ण षट्खंडागम के पुस्तकारूढ़ होने पर ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी को चतुर्विध संघ ने मिलकर इस आगम रूप श्रुतज्ञान की भव्यता के साथ विधिपूर्वक पूजा की थी, तभी से यह शुभ दिन 'श्रुतपंचमी' के रूप में प्रसिद्ध हुआ। जिसे आज तक इस परम्परा के सभी जैन इसे पवित्र पर्व के रूप में विविध समारोहों के साथ मनाते आ रहे हैं। क्योंकि आगमों के पुस्तकारूढ़ होने की एक नई परम्परा का सूत्रपात भी इसी दिन हुआ था। इसके पूर्व आगमों की मौखिक परम्परा चल रही थी। अत: आगमज्ञान की अक्षुण्णता के साथ ही इस नये सूत्रपात के कारण भी इस दिन का विशेष महत्व हो जाता है।
इस तरह आ. धरसेन से महाकम्मपयडिपाहुड का ज्ञान प्राप्त करके आ. पुष्पदन्त और भूतबलि, जिन्हें धवलाकार ने 'भगवन्' रूप में सम्बोधित किया है, उन्होंने जीवट्ठाण, खुद्दाबंध, बंधसामित्तविचय, वेयणा, वग्गणा और महाबंध- इन छह खण्डों से युक्त छक्खंडागम (षटखंडागम) की रचना की। यह ग्रन्थ किसी एक पूर्व या उसके किसी एक पाहुड पर आधारित न होकर, उसके विभिन्न अनुयोगद्वारों के आधार पर रचा गया होने से यह खण्डसिद्धान्त (खंडसिद्धंत) या 'खण्ड आगम' कहलाता है।
यह परमागम रूप होने से जीवों को आत्मकल्याण की ओर प्रवृत्त करने में महानतम साधक है। क्योंकि इसके प्रथम जीवट्ठाण खण्ड में ही मोक्षमहल
१. धवला पुस्तक१ पृष्ठ७१. षटखंडागमपरिशीलनः पीठिका पृ.५ सं.प.बालचंदशास्त्री। २. ज्येष्ठासित पक्ष-पञ्चम्या चातुर्वर्ण्य-संघसमवेतः।
तत्पुस्तकोपकरणैर्व्यधात् क्रियापूर्वकं पूजाम्।। श्रुतपञ्चमीति तेन प्रख्यातिं तिथिरियं परामाप।
अद्यापि येन तस्यां श्रुतपूजां कुर्वते जैना:।। श्रुतावतार १४३-१४४ ३. धवला पुस्तक१-पृष्ठ७४
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