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शौरसेनी प्राकृत साहित्य के आचार्य एवं उनका योगदान १८७ ज्ञाता थे। दीर्घ तपस्वी और महान् योगी आचार्य धरसेन ने अपनी अल्पायु जान, परम्परा से प्राप्त और अपने पास सुरक्षित अविच्छिन्न श्रुतज्ञान की महान् परम्परा का अपने साथ ही अन्त नजर आने के कारण, उन्हें इसकी सुरक्षा की बड़ी चिन्ता सता रही थी। अत: उन्होंने इस अवशिष्ट अल्पायु में ज्ञान की परम्परा जीवित रखने के उद्देश्य से दक्षिणापथ आन्ध्रप्रदेश के वेणातटाकपुर महिमा नगरी में उस समय आयोजित विशाल मुनि सम्मेलन को एक पत्र भेजा, जिसमें लिखा था-'स्वस्ति श्री वेणातटाकवासी यतिवरों को उजयन्त तट निकटस्थ चंद्रगुहा निवासी धरसेणगणि अभिवन्दना करके यह सूचित करता है कि मेरी आयु अत्यन्त अल्प रह गयी है। इससे मेरे हृदयस्थ शास्त्र की व्यच्छित्ति हो जाने की सम्भावना है। अतएव उसकी रक्षा के लिए आप शास्त्र ग्रहण और धारण में समर्थ, तीक्ष्णबुद्धिमान् दो यतीश्वरों को भेज दीजिए। ___आ. धरसेन के इस पत्र के मन्तव्य की गम्भीरता को ध्यान में रखते हुए उपस्थित आचार्यों और अन्य यतियों ने, समस्त कलाओं में पारंगत, शास्त्रों के अर्थग्रहण और धारण में समर्थ, देश, कुल, शील और जाति से विशुद्ध सर्वगुणसम्पन्न दो मुनि शिष्य आ. धरसेन के पास गिरिनगर भेजे। नवागत दोनों साधुओं की योग्यता संबंधी सम्यक् परीक्षा आ. धरसेन ने अनेक विधि से लेकर इन दोनों का क्रमश: पुष्पदन्त एवं भूतबलि नाम रखा। शुभ मुहूर्त में इन्हें महाकम्मपयडि पाहुड का अध्ययन और धारण कराया। विनय पूर्वक अध्ययन करते हुए आषाढ़ शुक्ला एकादशी के पूर्वान्ह में इन दोनों ने इस ज्ञान में पूर्णता प्राप्त की।
__ आचार्य धरसेन ने अध्यापन पूर्ण कराते ही अपने प्रयोजन की सिद्धि समझकर नि:शल्य अपने आत्मकल्याण रूप समाधि के मुख्य लक्ष्य को साधने के उद्देश्य से इन्हें उसी दिन वापिस जाने को कहा। गुरु के आदेशानुसार वहाँ से अंकुलेश्वर (गुजरात) में इन दोनों ने चातुर्मास किया। इसके बाद पुष्पदन्त ने अपने भानजे जिनपालित के साथ वनवासि देश (कर्नाटक) की ओर तथा भूतबलि ने द्रमिलदेश (तमिल प्रदेश) की ओर विहार किया।
१. कसायपाहुड–सं. पं. सुमेरचन्द्र दिवाकर, भूमिका पृष्ठ९ . २. धवला पुस्तक-१ पृष्ठ६७-७१ ३. पुणो-सुठु तुटेण धरसेण भडारएण सोम-तिहि णक्खत्तवारे गंथो' पारद्धो। पुणो कमेण
वक्खाणंतेण आसाढमास-सुक्कपक्ख-एक्कारसीए पुव्वण्हे' गंथो समाणिदो-धवला, भाग
१. पृष्ठ ७० ४. इन्द्रनन्दि श्रुतावतार-१२९-३४
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