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प्राकृत कथा-साहित्यः उद्भव, विकास
एवं व्यापकता
डॉ. जिनेन्द्र जैन सहायक आचार्य, प्राकृत-भाषा एवं साहित्य विभाग जैन विश्वभारती संस्थान
लाडनूँ (राज)- ३४१३०६
भारतीय वाङ्मय में संस्कृत, प्राकृत व अपभ्रंश-साहित्य का अपना विशेष स्थान है। साहित्य की समस्त विधाओं में प्राप्त इन तीनों भाषाओं के साहित्य का अध्ययन संस्कृति एवं उसके मूल स्रोत को जानने में आचार्यों एवं महापुरुषों ने इतिहास, धर्म, दर्शन, संस्कृति, समाज विषयक विपुल साहित्य लिखा, जिनमें पुराण, महाकाव्य, खण्डकाव्य, कथा, चरित, नाटक, शिलालेख, व्यंग्य, गीति, स्तोत्र, चम्पू आदि अनेक विधाएँ परिगणित हैं। उन्हीं विधाओं के आलोक में लगभग ईसा की प्रारम्भिक शताब्दी से लेकर १७-१८ वीं शताब्दी तक लिखे गये प्राकृत-साहित्य का अपना महत्त्व है। इन विधाओं में भी मानव एवं समाज का अत्यधिक निकटता का सम्बन्ध कथासाहित्य से रहा है। अत: प्राकृत कथासाहित्य के उद्भव विषयक मूलस्रोत, स्वरूप, भेद तथा उसके विषय और व्यापकता सम्बन्धी बिन्दुओं को उजागर करने का प्रयास प्रस्तुत आलेख में किया गया है।
यह सर्वमान्य है कि कथासाहित्य का सम्बन्ध मानव के आदिकाल से ही है। क्योंकि मानव का जब से पृथ्वी पर अवतरण हुआ और क्रमश: उसका विकास प्रारम्भ हुआ, तभी से उसे (मानव को) मनोविनोद तथा ज्ञानवर्धन की आवश्यकता महसूस हुई। अत: आवश्यकता आविष्कार की जननी हैं। इस उक्ति के अनुसार मानव ने अपने मनोविनोद एवं ज्ञानवर्धन का एक माध्यम बनाया कथा-कहानी। यही कराण है कि मानव नेत्रोन्मीलन से लेकर अपनी अन्तिम श्वास तक कथा-कहानी कहता और सुनता है। इसमें जिज्ञासा और कौतूहल
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