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श्रमणविद्या-३
उलझा है। जैनी नीति वस्तु के आधार पर चलती है, उसे स्वीकार करना सुलझना है उलझना नहीं।
इस प्रकार अनेकान्त दृष्टि के द्वारा अनेकों विरोध अनायास समाप्त किये जा सकते हैं। अथवा जाति, धर्म, राष्ट्र, समाज में जो पारस्परिक द्वन्द चल रहे हैं उसमें अनेकान्त दृष्टि से ही समाधान संभव है। समाज में विवाद का वातावरण समाप्त होकर संवाद का वातावरण बने। हमें दृष्टि को सम्यक् बनाकर शांतिसहिष्णुता का वातावरण निर्माण करना चाहिए। वर्तमान संदर्भो में सामाजिक राजनीतिक, धार्मिक क्षेत्रों में अनेकान्त सिद्धान्त से ही समस्याओं का समाधान संभव है। जैन श्रमण परम्परा में प्रतिपादित आचार एवं विचार दर्शन के सम्यक् प्रयोग से सुख शान्ति का साम्राज्य संभव है। लोक व्यवहार भी अनेकान्त बिना संभव नहीं है। अचार्य सिद्धसेन ने लिखा है।
जेण विणा लोगस्स ववहारो सव्वथा ण णिव्वडइ । तस्स भुवणेक्कगुरुणो णमो अणेगंतवायस्स ।।
१. आ. अमृतचन्द कलश २६५। २. जगमोहन लाल सिद्धान्त शास्त्री अध्यात्म अमृतकलश पृ. ३६७-३६८। ३. सम्मइसुत्तं अणेगंत कं उं।
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