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श्रमणविद्या- ३
से ज्ञात होता है, कि आचार्य बोधिभद्र इस विहार में रहते थे, आचार्य दीपङ्कर श्रीज्ञान अतीस ने इस विहार में कुछ दिन रहकर इस विहार के दूसरे आचार्यों के सहयोग से आचार्य भाव विवेक द्वारा लिखित 'माध्यमिकरत्न प्रदीप' का अनुवाद किया था ।
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तिब्बती शास्त्र (तेगुर) के उद्धरणों से ज्ञात होता है कि विक्रमपुरी विहार बङ्गाल में था आचार्य कुमारचन्द्र ने इस विहार में रहते हुये एक तन्त्र ग्रन्थ लिखा था, और इन्द्रभूति की पुत्री लीलावज्र और तिब्बती श्रमण पुण्यध्वज ने मिलकर उस तान्त्रिक ग्रन्थ का तिब्बती भाषा में अनुवाद किया था। चीनी इतिहासकार प्राग-सामजन्- जां ने लिखा है कि त्रैकुटक विहार बङ्गाल में था, इस विहार में आचार्य हरिभद्र ने राजाधर्मपाल के अनुरोध पर अष्टसाहस्रिका प्रज्ञापारमिता की आचार्य नागार्जुन और मैत्रेयनाथ के सिद्धान्तों के आधार पर एक टीका लिखी थी, वह टीका अभी भी संस्कृत में उपलब्ध है और अष्ट साहस्रिका प्रज्ञापारमिता पर सबसे अच्छी टीका मानी जाती है।
विक्रमशिला विहार के मगध में स्थित होने पर भी यहाँ अनेक आचार्य और भिक्षु बङ्गाल से आकर रहते थे। आचार्य जेतारि ने (९४० - ९८० ) ईस्वी में विक्रमशिला विहार से राजपण्डित की उपाधि प्राप्त की थी। विक्रमशिलाविहार में अध्यापक के रूप में रत्नकीर्ति, रत्नवज्र, ज्ञानश्रीमित्र, रत्नाकर शान्ति, यामारी आदि आचार्यो की गणना ख्यातिलब्ध विद्वानों में होती थी । राजा रामपाल ने जगद्दल विहार निर्माण कराके उसमें अवलोकितेश्वर और तारामूर्ति की स्थापना की थी। उक्त विहार बङ्गाल और करतोया नदी के संगम पर स्थित रामावती नगर में निर्मित था ऐसा इतिहासकारों का मत है । आचार्य विभूति चन्द्रदानशील, मोक्षाकरगुप्त, सुभाकरगुप्त, धर्माकरगुप्त आदि प्रसिद्ध आचार्य इस विहार में रहते थे । तिब्बती विद्वान् इस विहार में आकर इन आचार्यो की सहायता से संस्कृत बौद्ध ग्रन्थों का तिब्बती भाषा में अनुवाद करते थे ।
चीनी भ्रमणकारी प्राग-साम- जन्- जां ने अपने यात्रा वृत्तान्त में लिखा है कि चटगांव के पण्डित विहार में तन्त्रविद्या का अध्ययन होता था । इस विहार
भिक्षु तिलिपा तन्त्र विद्या के प्रसिद्ध आचार्य थे, यह उनके शिष्य नाड़पाद की तन्त्र विद्या में ख्याति से ज्ञात होता है । तिब्बती इतिहास से ज्ञात होता है कि पट्टी केरक नगर में एक विहार था, इस विहार में बैठकर आचार्य नाड़पाद ने वज्रपाद सार संग्रह ग्रन्थ लिखा था ।
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