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________________ बङ्गाल के प्राचीन बौद्धविहारों में श्रमणों के नियम एवं शिक्षा-व्यवस्था १३५ वर्ष में आना होता था, और यही से जहाज में चढ़ना होता था। सर्व प्रथम ताम्रलिप्ति में ही उतरना होता था। इसका ज्ञान हमें हुईलन (Hwilun) के मार्ग निर्देश से होता है। फाहियन ने दो वर्षों तक ताम्रलिप्ति में रहकर सूत्रग्रन्थों का अध्ययन किया था, और बुद्धमूर्ति का चित्रण किया था, उनके समय में यहाँ पर लगभग २२ बौद्धविहार थे और सभी विहारों में बौद्धभिक्षु रहते थे। युवाच्वाङ् ने दस विहार और एक हजार भिक्षु देखे थे। यहाँ पर हाङ् नामके एक महायानी बौद्ध भिक्षु ने बारह वर्ष तक निवास कर संस्कृत भाषा का अध्ययन किया था, भिक्षुशीलप्रभा ताम्रलिप्ति में तीन साल तक संस्कृत भाषा सीखने के लिए रहे थे। Hiun-Ta यहाँ एक वर्ष तक संस्कृत भाषा सीखने के लिये रहे। युयां-चुयां का एक विद्यार्थी यहाँ बारह वर्ष तक रहा और संस्कृत भाषा का बहुत बड़ा विद्वान् बना। इत्सिङ् ने वहाँ जहाज से उतर कर उसका दर्शन किया और ताम्रलिप्ति में पांच मास तक रहकर भाषा सीखकर उनके साथ भारत वर्ष के और बौद्धतीर्थ स्थलों के दर्शनार्थ गया। इत्सिङ् ने अपनी यात्रा विवरणी में भाराहा विहार की शिक्षा व्यवस्था और अनुशासन के विषय में लिखा है। उन्होंने अपने विवरण में यह भी उद्धृत किया कि उस समय ताम्रलिप्ति में पाँच बौद्धविहार थे। पाल राजाओं के समय में बङ्गाल में अनेक बौद्ध विहारों का निर्माण हुआ, जिनमें धर्मपाल का सर्वाधिक योगदान रहा। उनके द्वारा निर्मित मुख्य विहारों में से मगध में विक्रमशिला विहार, विरेन्द्र सोमपुर विहार, बङ्गाल में विक्रमपुरी विहार, पहाड़पुर के ग्वाल विहार प्रमुख हैं। सत्यपीर टीले के पुरातात्विक उत्खनन से यहाँ एक बहुत बड़े बौद्धविहार की जानकारी मिली है। इस विहार में भिक्षुओं के निवास के लिए छोटे-छोटे दौ सौ कमरे निकले है, और प्रत्येक कमरे में मूर्ति रखने की भी व्यवस्था थी। पुरातत्विकों का अनुमान है कि इस विहार में लगभग एक हजार भिक्षु रहते थे और विहार के समीप सत्यपीर टीले में एक बौद्ध तारादेवी के बड़ा मन्दिर भी प्रकाश में आया है। उत्खनन से धर्मपाल के द्वारा निर्मित सोमपुर विहार के भिक्षुसंघो के नामाङ्कित कुछ शिलापट्ट भी मिले है, जिनमें वीर्येन्द्रभद्र नाम के समतट-निवासी भिक्षु ने सोमपुर विहार को एक बुद्धमूर्ति दान में दी थी। सम्भवतः वीर्येन्द्रभद्र का काल दशवीं शताब्दी रहा होगा, ऐसा प्रतीत होता है। नवमी से ग्यारवीं शताब्दी तक इस विहार को देश-विदेश में बहुत अच्छा माना जाता था। तिब्बती इतिहास Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014030
Book TitleShramanvidya Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBrahmadev Narayan Sharma
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year2000
Total Pages468
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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