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बोधिसत्त्व-अवधारणा के उदय में बौद्धेत्तर प्रवृत्तियों का योगदान ११३
उपदेशों में भिक्षुओं को आत्मदीप तथा प्रज्ञावान होने को कहा था। फलस्वरूप बौद्ध धर्म में उदार एवं निवीन चिन्तन धाराएँ प्रवर्तित होती रही। इसकी व्यापक एवं उदात्तदृष्टि का ज्वलन्त प्रमाण आचार्य नागार्जुन का स्वभावशून्यता का सिद्धान्त था जिसके अनुसार परम सत्य तो सर्वथा निष्प्रपंच है ही सांवृतिक रूप से भी कोई भी पदार्थ या धारणा निरपेक्ष रूप से सत्य हो ही नहीं सकती। अत: स्वयं बौद्ध धर्म में पहले से ही कुछ ऐसे बीज रूप में मूल तत्त्व थे जो नूतन समय एवं क्षेत्रों की मृत्तिका में अंकुरित होकर बोधिसत्त्व अवधारणा के रूप में पूर्ण प्रस्फुटित हुए।
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