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श्रमणविद्या-३
है परन्तु शान्तिदेव ने इसका स्थान पापदेशना, क्षमा याचना, पूजा आदि को प्रदान कर दिया है। ऐसा लगता है कि शान्तिदेव के समय तक महायान की भावना में मूलभूत परिवर्तन आ गया था और यह परिवर्तन स्वयं बौद्ध धर्म में हो रहे विचार मन्थन के फलस्वरूप भी हो सकता है या भारतीय भूमि में ही उदित कतिपय अन्य विचार धाराओं के प्रभाव से भी ऐसा हो सकता है। पर इस बात की भी सुदृढ़ संभावना है कि ईसाई धर्म के प्रभाव से पाप देशना एवं क्षमायाचना जैसी प्रवृत्तियां शान्तिदेव के बोधिचर्यावतार में आ गई हैं। साथ ही बोधिसत्त्वों के द्वारा दुःख से पीड़ित समस्त मानवता के दुःख अपने ऊपर ले लेने की जो बात है या परिवर्त की जो अवधारणा है वह भी यीशुमसीह के बलिदान तथा अपने रक्त द्वारा समस्त पापों के प्रक्षालन की विचारधारा से प्रभावित हो सकती है। जो भी हो महायान में बाह्य तत्त्वों के आत्मसात करण करने की सामर्थ्य थी। अत: यह सम्भव है कि बोधिसत्त्व अवधारणा के परिवर्त एवं पाप देशना जैसे पक्ष ईसाई धर्म के प्रभाव स्वरूप स्वीकृत किए हो परन्तु इन सब धारणा के उदय एवं इसकी अनेक महत्वपूर्ण अवधारणाओं यथा पारमिता पाचन आदि में ईसाई धर्म के प्रभाव का कोई योगदान प्रतीत नहीं होता। निष्कर्षः
बोधिसत्त्व अवधारणा के अभ्युदय एवं विकास में संभावित प्रभावों की उपर्युल्लिखित चर्चा के उपरान्त यहाँ यह स्पष्ट कर देना अनिवार्य होगा कि इस अवधारणा का विकास प्रधानत: देश एवं समयगत परिस्थितियों के बदलते हुए स्वरूप के अनुसार बौद्ध धर्म के अन्दर होने वाले स्वाभाविक एवं महापरिनिर्वाण के कुछ ही समय उपरान्त विस्तृत भू खण्ड में फैले बौद्ध संघ में सर्व प्रथम विनय के प्रश्नों को लेकर जो विवाद उठा वह इसी परिवर्तन का द्योतक था। इसकी परिणति स्थविरवादी परम्परा में वर्णित वैशाली की द्वितीय संगीति में होने वाले विभाजन के रूप में हुई। महासांगितिक भिक्षु नूतन परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में शास्ता की देशनाओं के आशय को सुरक्षित रखते हुए नवीन धारणाओं एवं आचरणों के प्रति भी उदार बने। फलस्वरूप न केवल विनयगत नियमों में नवीन तत्त्वों का समावेश हुआ अपितु बुद्धत्त्व बोधि आदि की धारणाएँ भी नए आयामों के साथ प्रस्तुत की गई। स्वयं शास्ता ने अपने
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