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श्रमण विद्या-२ अल्पमात्र भी दोषों में भय देखने वाला होता है और भली प्रकार शिक्षापदों को सोखता है, यह प्रातिमोक्षसंवर शील कहलाता है।
सामञफलसुत्त में अजातशत्रु के एक प्रश्न के उत्तर में बुद्ध कहते हैंमहाराज ! जो भिक्षु चक्षु से रूप को देखकर न उसके निमित्त (आकार) को ग्रहण करने वाला होता है, और न अनुव्यञ्जनों को, जिसके कारण चक्षु इन्द्रिय में असंयम के साथ विहरते हुए लोभ, दौमनस्य, बुरे अकुशल धर्म उत्पन्न होवें, उसके संवर के लिए जुटता है, चक्षु इन्द्रिय की रक्षा करता है, कान से शब्द सुनकर, नाक से गन्ध सूंघकर, जिह्वा से रमका आस्वादन कर, शरीर से स्पर्श कर, मन से धर्मों को जानकर, न उनके निमित्त (आकार) को ग्रहण करता है, और न अनुव्यञ्जन (आसक्ति) को ग्रहण करने वाला होता है। यह स्मृतिसंवर कहा जाता है ।७८
सुत्तनिपात में भगवान् बुद्ध अजित को सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि जो तृष्णा आदि के स्रोत हैं, स्मृति उनको रोकने वाली है, मैं स्रोतों का संवर बतलाता हूँ--ये प्रज्ञा से बन्द हो जाते हैं। यह ज्ञानसंवर है।५ मज्झिमनिकाय में बुद्ध भिक्षुओं को सम्बोधित करते हैं कि भिक्षुओ! जो भिक्षु सर्दी-गर्मी, भूख-प्यास, मक्खी, मच्छर, धूप, हवा, सरीसृप आदि के आघात को सहन करने में समर्थ होता है, वाणी के द्वारा निकले दुर्वचन, तथा शरीर में उत्पन्न ऐसी दुःखमय, तीव्र, तीक्ष्ण, कटुक, अवांछित, अरुचिकर, प्राणहर पीड़ाओं का स्वागत करने वाले स्वभाव का होता है, यह क्षान्तिसंवर है।०
आगे कहा गया है कि भिक्षु ठीक से जानकर उत्पन्न हुए काम वतर्ककामवासना सम्बन्धी संकल्प विकल्पका स्वागत नहीं करता है, छोड़ता, हटाता, अलग करता है, उत्पन्न हुए व्यापादवितकं का, उत्पन्न हुए विहिंसा वितर्क का, तथा पुनः पुनः उत्पन्न होने वाले पापी विचारों (धर्मों) का स्वागत नहीं करता, छोड़ता, हटाता तथा अलग करता है । यह वीर्यसंवर कहा जाता है।
७७. अयं पातिमोक्ख संवरो।-वही, १, विभंग १२।१।। ७८. अयं सतिसंवरो।-वही १, दीघनिकाय १।२।४, विभंग १२.१ । ७९. अयं त्राणसंवरो।-वही, १, सुत्तनिपात ५६१४, यानि सोतानि लोकस्मि
(अजितो ति भगवा), सति तेसं निवारणं, सोतानं सवरं ब्रू मि, पञआयेते
पिधीयरे ति । ८०. अयं खन्तिसंवरो नाम ।—विसुद्धिमग्ग १, मज्झिमनिकाय १।१।२,
अंगुत्तर० ३।६।६। ८१. अयं वीरियसंवरो नाम । वही १, मज्झिम० १।१।२, तथा अंगु० ३।६।६ ।
संकाय पत्रिका-२
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