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श्रमण परम्परा में संवर जैनपरम्परा की तरह बौद्धपरम्परा में भी संवर का विस्तृत विवेचन प्राप्त होता है। पालित्रिपिटक से लेकर उत्तरकालीन पालि तथा संस्कृत बौद्ध साहित्य में संवर का विवेचन किया गया है। सामान्यतः संवर को शील के अन्तर्गत विश्लेषित किया गया है। यह पूर्ण रूप से आचार पक्ष को उद्घाटित करता है। आस्रवों को रोकने के अर्थ में जहां संवर का विवेचन किया गया है, वह प्रायः जैन श्रमणपरम्परा के अनुसार ही है। जिसकी व्याख्या तत्त्वमीमांसीय दृष्टि से भी की जा सकती है। त्रिपिटक में उपलब्ध नाटपुत्त के संवर का विवरण बुद्ध द्वारा विवेचिन संवर से भिन्न है।
सामान्यतया संवर शब्द का प्रयोग शील, संयम, आवृत करना, रक्षा, रोकना, निवृत्ति आदि अर्थो में हुआ है।
विभंग में संवर शब्द की व्युत्सत्ति करते हुए कहा गया है कि कायिक, वाचसिक तथा कायिक वाचसिक का अव्यतिक्रम-अनुल्लंघन संवर है। इस संवर की व्याख्या में आये कायिक-वाचसिक एवं अव्यतिक्रम पदों का अर्थ है कि ग्रहण किये गये शील का काय और वाणी द्वारा उल्लंघन नहीं करना ।७३
विशुद्धिमग्ग में शील के प्रसंग में कहा गया है कि प्राणी हिंसा. आदि से विरत रहनेवाले, व्रतादि का आचरण करने वाले साधक के चेतनादि धर्म-मानसिक अवस्थायें 'शील' हैं।७४ पटिसम्मिदामग्ग में कहा गया है कि यह शील चार प्रकार का होता है--चेतना शील, चैतसिक शील, संवर शील तथा अव्यतिक्रम शील ।७५
इनमें से संवर शील पाँच प्रकार का बताया गया है-(१) प्रातिमोक्षसंवर, (२) स्मृतिसंवर, (३) ज्ञानसंवर, (४) क्षान्तिसंवर (५) और वीर्यसंवर ।
भगवान् के शिक्षापदों को प्रातिमोक्ष कहते हैं। विभंग में कहा गया है कि जो भिक्षु प्रातिमोक्ष के संवर से संवत, आचार और गोचर से सम्पन्न विहरता है, ७२. संवरो ति । कायिको अवीतिक्कमो, वाचसिको अवीतिक्कमो, कायिक
वाचसिको अवी तिक्कमो ।-विभंग १२/१।। ७३. अवीतिक्कमो सीलंति समादिनसीलस्स कायिकवाच सिको अनतिक्कमो।
-विसुद्धिमग्ग १ ७४. कि सीलं ति । पाणातिपातादीहि वा विरमन्तस्स वत्तपटिपत्ति वा पूरेन्तस्स
चेतनादयो धम्मा।-वही,१। ७५. पटिसम्मिदामग्ग १।१।२ । ७६. विसुद्धिमग्ग १ ।
संकाय पत्रिका-२
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