SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 171
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५२ श्रम विद्य 190 ) अनाकार अर्थात् चक्षुदर्शनोपयोग और अचक्षुदर्शनोपयोग में पूर्वबद्ध कर्म अभाज्य हैं | अवधिदर्शनोपयोग में पूर्वबद्ध कर्म कृष्टिवेदक क्षपक के भाज्य हैं । 191) किस लेश्या में, किन-किन कर्मों में तथा किस क्षेत्र में । किस काल में) वर्तमान जीव के द्वारा बाँधे हुए, तथा साता, असाता और किस लिंग के द्वारा बाँधे हुए कर्म कृष्टिवेदक क्षपक के पाये जाते हैं ? 192) सर्व लेश्याओं में, तथा अभाज्य हैं, असि, मषि ताता और असाता में वर्तमान जीव के पूर्वबद्ध कर्म आदि कर्मों में, शिल्प कार्यों में सभी पाखण्डी लिंगों में तथा सभी क्षेत्रों में बद्ध कर्म भाज्य हैं । समा अर्थात् उत्सर्पिणी अवसर्पिणी रूप काल के विभागों में पूर्वबद्ध कर्म अभाज्य हैं । 193) ये पूर्वबद्ध (अभाज्य ) कर्म सर्व स्थिति विशेषों में, सर्व अनुभागों में तथा सर्व कृष्टियों में नियम से होते हैं । 194) एक समय में प्रबद्ध कितने कर्मप्रदेश किन - किन स्थितियों में अछूते हैं (उदयस्थिति को अप्राप्त) रहते हैं ? इस प्रकार कितने भवबद्ध कर्मप्रदेश किन-किन स्थितियों में असंक्षुब्ध रहते हैं ? 195) अन्तरकरण करने में उपरिम अवस्था में वर्तमान क्षपक के छह आवलियों के भीतर बँधे हुए समयप्रबद्ध नियम से अछूते हैं । ( क्योंकि अन्तरकरण के पश्चात् छह आवली के भीतर उदीरणा नहीं होती है ।) वे अछूते समय-प्रबद्ध चारों ही संज्वलन कषाय सम्बन्धी सम स्थितिविशेषों में और सभी अनुभागों में अवस्थित रहते हैं । 196) जो बध्यमान आवली है, उसके कर्मप्रदेश क्रोध संज्वलन की प्रथम कृष्टि में पाये जाते हैं । इस पूर्व आवली के अनन्तर जो उपरिम अर्थात् द्वितीयावलो है, उसके कर्मप्रदेश नियम से क्रोध संज्वलन की तीन और मान संज्वलन की एक, इन चार संग्रह कृष्टियों में पाए जाते हैं । 197) तीसरी आवली सात कृष्टियों में, चौथी आवली दश कृष्टियों में और उससे आगे की शेष सर्व आवलियाँ सर्व कृष्टियों में पायी जाती हैं । 198) ये ऊपर कहे गये छहों आवलियों के इस वर्तमान भव में ग्रहण किए गये समयप्रबद्ध नियम से असंक्षुब्ध रहते हैं । उदय या उदीरणा को प्राप्त नहीं होते हैं, किन्तु शेष भवबद्ध उदय में संक्षुब्ध रहते हैं । संकाय पत्रिका-२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014029
Book TitleShramanvidya Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1988
Total Pages262
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy