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________________ १३४ ७. उपयोग, ११. दर्शन मोह-क्षपणा, १०. दर्शनमोह-उपशामना, १३. संयम, १४. चरित्रमोहउपशामना और १५. चरित्रमोह-क्षपणा । इन पन्द्रह अर्थाधिकारों में ही अद्धापरिमाण का निर्देश है । श्रमणविद्या ९. व्यंजन, ८. चतुःस्थान, ५२. देशविरति, 1-5) अनाकार ( दर्शनोपयोग ) चक्षु, श्रोत्र, घ्राण और जिह्वा इन्द्रिय सम्बन्धो अवग्रहज्ञान, मन, वचन, काय, स्पर्शनेन्द्रिय विषयक अवग्रहज्ञान, अवाय, ईहा, श्रुत और उच्छ्वास, इन सबका जघन्य काल क्रमशः उत्तरोत्तर विशेषविशेष अधिक है, तथापि वह संख्यात आवली प्रमाण है । 16) तद्भवस्थ केवली के केवलदर्शन, केवलज्ञान और सकषाय जीव के शुक्ललेश्या, इन तीनों का; एकत्ववितर्क अवीचारशुक्लध्यान, पृथक्त्ववितर्क वीचारशुक्लध्यान, प्रतिपाती उपशामक, आरोहक उपशामक और क्षपक सूक्ष्मसाम्परायसंयत; इन सबका जघन्यकाल क्रमशः उत्तरोत्तर विशेष विशेष अधिक है । 17 ) मान, क्रोध, माया और लोभ तथा क्षुद्रभवग्रहण और कृष्टीकरण, इनका जघन्य काल उत्तरोत्तर विशेष विशेष अधिक है, ऐसा जानना चाहिए । 18) संक्रामण, अपवर्तन, उपशान्तकषाय, क्षीणमोह, उपशामक और क्षपक, इनके जघन्य काल क्रमशः उत्तरोत्तर विशेष विशेष अधिक जानना चाहिए । 19) पूर्वोक्त सर्वजघन्यकाल निर्व्याघात अर्थात् मरण आदि व्याघात के बिना होते हैं । ये जघन्य काल सम्बन्धी पद आनुपूर्वी से कहे गये हैं । इससे आगे कहे जाने वाले उत्कृष्ट काल सम्बन्धी पदों अनानुपूर्वी अर्थात् परिपाटी क्रम के बिना जानना चाहिए । 20 ) चक्षु इन्द्रिय सम्बन्धी मतिज्ञानोपयोग, श्रुतज्ञानोपयोग, पृथक्त्ववितर्कवीचार उपशान्तकषाय और उपशामक, पूर्ववर्ती स्थान के काल से दुगुनाउत्कृष्ट काल का परिमाण स्वपूर्व शुक्लध्यान, मानकषाय, अवाय मतिज्ञान, इनके उत्कृष्ट कालों का परिमाण अपने से दुगुना है | इनसे अतिरिक्त शेष स्थानों का स्थान से विशेष अधिक है । Jain Education International (21) किस किस कषाय में किस किस नय की होता है ? अथवा कौन नय किस द्रव्य में नय किस द्रव्य में प्रिय के समान आचरण करता है ? अपेक्षा प्रेय या द्वेष का व्यवहार द्वेष को प्राप्त होता है और कौन 22) मोहनीय की प्रकृति, स्थिति, अनुभाग, उत्कृष्ट अनुत्कृष्ट प्रदेश विभक्तियों तथा क्षीणाक्षीण और स्थित्यन्तिक की प्ररूपणा करनी चाहिए । संकाय पत्रिका - २ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014029
Book TitleShramanvidya Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1988
Total Pages262
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size9 MB
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