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________________ श्रमण विद्या प्रकार चेतन प्राणियों में होनी चाहिए। हमें समस्त प्राणियों के बीच उस शक्ति का उपयोग सीखना चाहिए। (यं० इ० ५-५-२०)। गांधीजी ने अपने को अद्वैतवादी कहा है किन्तु उनके मत में जीवन की अखण्डता जगत् के मिथ्यात्व पर आधारित न होने के कारण गांधीजी की अखण्डता जगत् से अतीत और अनिर्वचनीय नहीं, प्रत्युत यथार्थ है। इस प्रकार की अखण्डता के अनुबन्ध में व्यक्ति को वह खड़ा करना चाहते हैं । इसलिए उनके मत में व्यक्तित्व का स्वरूप उसका अधिकार एवं कर्तव्य पुराने धार्मिक तथा राजनीतिक, दार्शनिक व्यक्तिवादियों से बहुत कुछ भिन्न हो जाता है। वे कहते हैं-"हमें व्यक्तिगत स्वतन्त्रता और सामाजिक संयम के बीच के रास्ते पर चलना सीखना होगा (ह० २७-५-३९)”। ऐसे व्यक्ति का जगत् के साथ स्वाभाविक तथा आदर्श सम्बन्ध गांधीजी अहिंसा को ही मानते हैं और कहते हैं- “अवश्य ही समाज का नियमन ज्यादातर आपस के व्यवहार में अहिंसा के प्रगट होने से होता है, मेरा अनुरोध इतना ही है कि उसका राष्ट्रीय, अन्तर्राष्ट्रीय पैमाने पर अधिक विस्तार किया जाए (ह० ७-१-३९)। इसलिए गांधीजी की दृष्टि में अहिंसा कोई रूढ़ धर्म नहीं, प्रत्युत विभिन्न परिस्थितियों में उसके नये-नये रूपों की सम्भावना बनी रहती है। अहिंसा की सक्रियता से गांधी जी का अभिप्राय उसकी गीतशीलता और तेजस्विता से है । उन्होंने कहा है-"मेरा अहिंसा धर्म अत्यन्त सक्रिय एवं तेजस्वी है-(य० इ० १७-६-२७) ।" धर्म अपूर्ण है, इसलिए वह सदा विकसित होता रहेगा और बार-बार उसके नये नये अर्थ किये जाते रहेंगे। केवल ऐसे विकास के कारण ही सत्य और ईश्वर की ओर प्रतिदिन प्रगति करना हमारे लिए सम्भव है-(यरवडा मन्दिर पृ० ३८)। यहाँ ध्यान देने की बात है जिस गतिशीलता और व्यावहारिक अहिंसात्मक साधन से सत्य का साक्षात्कार गांधी जी मानते हैं, वह सत्य भी परिवर्तनशील और व्यावहारिक होगा। साधनरूप अहिंसा से साध्यरूप सत्य के अभिन्न होने का अभिप्राय है कि गांधीजी का सत्य परम्परागत अर्थ से अपरिवर्तनीय एवं नित्य नहीं है। यहाँ तक कि गांधी जी सत्य-शोध के बीच आई हुई भूलों को स्वीकार करते हैं। वे कहते हैं- “सत्य ईश्वर का सही नाम है, इसलिए प्रत्येक मनुष्य अपने ज्ञान के अनुसार सत्य का पालन करे तो उसमें कुछ भी बेजा नहीं है। बेशक वैसा करना उसका कर्तव्य है। फिर उस प्रकार सत्य-पालन में किसी से भूल हो जाती है, तो वह अपने आप ही ठीक हो जाएगी-(म० प्र० १९४५ पृ० २-३)। अहिंसा की तीसरी शर्त विवेक है। गांधीजी के मत में विवेक शास्त्रवाद और बुद्धिवाद दोनों से भिन्न और व्यापक है। गांधीजी कहते हैं--सत्य किसी धर्म ग्रन्थ संकाय पत्रिका-१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014028
Book TitleShramanvidya Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1983
Total Pages402
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size14 MB
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