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अहिंसा : अध्ययन की एक दिशा
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गांधीजी अहिंसा की अपरिमित शक्तियों के विकास के लिए श्रद्धा को एक मूलभूत तत्त्व मानते हैं । उनके अनुसार जिस श्रद्धा और प्रयास से वैज्ञानिक लोग प्रकृति की शक्तियों की खोज करते हैं, वैसी ही श्रद्धा से अहिंसा की शक्ति की खोज करने और उसके नियमों को काम में लाने की आवश्यकता है। गाँधीजी बुद्धि को सर्वज्ञ नहीं मानते, इसलिए वे जो बुद्धि से परे हो, उसे भी श्रद्धा के अन्तर्गत मानते हैं। उनकी दृष्टि में श्रद्धा आत्मविश्वास है, जो सभी विरोधी हिंसक परिस्थितियों में अहिंसक व्यक्ति को अटूट विश्वास प्रदान करता है । अनुकूल एवं प्रतिकूल फल होने पर श्रद्धा हर्ष और विषाद में उसे धैर्य प्रदान करती है । जिस श्रद्धा को धर्मों ने अज्ञात तत्त्वों को प्राप्त करने के लिए आवश्यक माना, उसे गाँधीजी ने अहिंसा के साथ जोड़कर श्रद्धा को एक वैज्ञानिक खोज का सशक्त उपकरण बताया । इस प्रकार गाँधीजी ने एक ओर श्रद्धा को अन्ध श्रद्धा होने से बचाया, दूसरी ओर अहिंसा के साथ उसे जोड़कर अहिंसा को अधिक सक्रिय बनाया ।
गांधीजी के समक्ष दो बातें स्पष्ट थी, (१) अहिंसा एक विकसनशील प्रक्रिया है और ( २ ) उसका प्रयोग व्यक्तिगत ही नहीं, सामूहिक भी हो सकता है । वे कहते हैं कि यह मानना गहरी भूल है कि अहिंसा केवल व्यक्तियों के लिए ही अच्छी है और जनसमूह के लिए नहीं (ह० ५-९-३६) । अहिंसा के विकास के सम्बन्ध में वे कहते हैं- " मानवजाति ने अहिंसा की दिशा में बराबर प्रगति की है, तो निष्कर्ष यह निकलता है कि उसे उस तरफ और भी ज्यादा बढ़ना है । संसार में स्थिर कुछ भी नहीं है, सब कुछ गतिशील है - (हरि० ११-८-४० ) " । अन्यत्र वे कहते हैं- “मेरी राय
अहिंसा केवल व्यक्तिगत सद्गुण नहीं है, वह एक सामाजिक सद्गुण भी है, जिसका विकास अन्य सद्गुणों की भाँति किया जाना चाहिए (यं० इ० ७-१-३८) " । उक्त दो मान्यताओं से सम्बन्धित दो बातें और भी हैं जिन पर गांधीजी जोर देते हैं - (१) व्यक्ति का महत्त्व और ( २ ) जीवन की अखण्डता का सिद्धान्त । व्यक्ति की दृष्टि से वह संख्या का महत्त्व नहीं मानते । गुण का महत्त्व मानते हैं, वे कहते हैं 'हर एक बड़े ध्येय के लिए जूझने वालों की संख्या का महत्त्व नहीं होता, जिन गुणों से वे बने होते हैं, वे ही गुण निर्णायक होते हैं । संसार के महान् से महान् पुरुष हमेशा अपने ध्येय पर अकेले डटे रहते हैं (यं० इ० १०-११-२९) । गांधीजी जब भक्ति पर इतना जोर देते हैं और साथ में यह भी कहते हैं कि अहिंसा सामुदायिक गुण है तो विरोधाभास मालूम होता है । इसे दूर करने के लिए वे जीवन की अखण्डता का सिद्धान्त प्रस्तुत करते हैं । उनके अनुसार परमाणुओं के बीच जैसे संयोजन शक्ति मौजूद है, वैसे ही चेतन प्राणियों में है । वे कहते हैं - जिस प्रकार जड़ प्रकृति में संयोजन शक्ति है, उसी
संकाय पत्रिका - १
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