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________________ श्रमण विद्या कब्जा करने के आधार पर अज्ञातकाल से प्रचलित व्यवहारों में परिवर्तन क्यों नहीं कर लिया ? इसी का उत्तर हम महात्मा गाँधी के प्रयासों से कुछ प्राप्त कर सकते हैं । २० अहिंसा का उपर्युक्त आदर्श चित्र चाहे कितना भी गम्भीर और व्यापक क्यों न हो, किन्तु जब तक उसके सामूहिक प्रयोग की विधि नहीं निकलेगी, तब तक अहिंसा के आदर्श से सामाजिक और राजकीय प्रश्न प्रभावित नहीं हो सकेंगे । महात्मा गांधी को अहिंसा के एकांगी-पन का भान था, अतः उन्होंने भारतवर्ष में जीवन के अनेक क्षेत्रों में तथा राजनीति में सामुदायिक आधार पर उसका प्रयोग किया। इन प्रयोगों से अहिंसा की सामूहिकता के प्रति लोगों का विश्वास बढ़ा और उसके प्रयोग - कौशल का प्रशिक्षण भी मिला। गांधीजी भी अहिंसा को विकास के क्रम में देखते हैं और आगे उसमें विकास का अनन्त अवकाश मानते हैं । वे इन सबके पीछे व्यक्ति का महत्त्व स्वीकार करते हैं । उन्हें एकात्मवाद के आधार पर जीवन की अखण्डता पर विश्वास है । उनका अखण्डता का यह सिद्धान्त जगत् के मिथ्यात्व - सिद्धान्त पर निर्भर नहीं है, अपितु जीव-जगत् सबको सत्य मानते हैं । मनुष्य के अतिरिक्त प्राणियों को भी वे महत्त्व देते हैं, किन्तु एक सीमा तक ही । जीवन की अखण्डता जगत् के मिथ्यात्व पर आधारित न होने के कारण गांधीजी की अखण्डता जगत् से अतीत और अनिर्वचनीय नहीं, प्रत्युत यथार्थ ही है । इस प्रकार की अखण्डता के अनुबन्ध में व्यक्ति को अनिवार्य रूप से वह खड़ा मानते हैं । इसलिए उनके मत में व्यक्तित्व का स्वरूप और उसका अधिकार एवं कर्तव्य पुराने धार्मिक, राजनीतिक एवं दार्शनिक व्यक्तिवादियों से बहुत कुछ भिन्न हो जाता है । ऐसे व्यक्ति का जगत् के साथ स्वाभाविक तथा आदर्श सम्बन्ध वह अहिंसा में ही मानते हैं । इनकी अहिंसा कोई रूढ़ धर्म नहीं, प्रत्युत उनके अनुसार विभिन्न परिस्थितियों में उसके नए-नए रूपों की संभावना बनी रहती है । गांधीजी की अहिंसा के तीन प्रकट पक्ष या शर्त हैं - ( १ ) स्वाभाविकता (२) सक्रियता और (३) विवेक । अहिंसा की स्वाभाविकता से उनका अभिप्राय है-जीवन में प्रवहमान व्यापक सत्य को प्रकट करने की क्षमता, जिससे जीवन की अखण्डता का साक्षात्कार हो सके। इस प्रकार अहिंसा की स्वाभाविकता इसमें है कि उससे प्राणियों की मूलभूत एकता प्रकट होती है । इसलिए गांधीजी के शब्दों में " सांसारिक बातों में अहिंसा का आचरण करना उसका सच्चा मूल जानना है ।" इसी आधार पर गांधीजी अहिंसा का सत्य तथा धर्म के साथ अनिवार्य सम्बन्ध मानते हैं । वे कहते हैं " अहिंसा और सत्य को एक दूसरे से अलग करना असम्भव है" “जो धर्म व्यवहार की बातों की परवाह नहीं करता और उन्हें हल करने में सहायक नहीं होता, वह धर्म ही नहीं है ।" Jain Education International For Private & Personal Use Only संकाय पत्रिका - १ www.jainelibrary.org
SR No.014028
Book TitleShramanvidya Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1983
Total Pages402
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size14 MB
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