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________________ अहिंसा : अध्ययन की एक दिशा से काय और वाक् का माध्यम महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि इन्हीं के आधार पर अपराध होने पर प्रायश्चित्त का विधान हो सकता है। मनोद्वार ऐसा है कि तत्कृत अपराध उससे बाहर ज्ञापित नहीं हो सकते । बौद्ध जब अपराध का क्षेत्र बाह्य मानते हैं, तब भी उसके पीछे वर्तमान मानसिक स्थिति के आधार पर ही दण्ड व्यवस्था करते हैं और उसका प्रयोग-क्षेत्र भी, अधिकतर मानसिक ही मानते हैं। जैनों से बौद्धों की दृष्टि में जो मतभेद है, उसका मूल बौद्धों का “चेतना ही कर्म है"- यह सिद्धान्त है । जैनों का कर्म सिद्धान्त महत्त्वपूर्ण होते हुए भी वे कर्म को जड़-चेतन उभयरूप स्वीकार करते हैं और उसको आत्मा के अधीन कर देते हैं, जिससे मन और चेतना का स्वातन्त्र्य बहुत सीमित हो जाता है। वैदिकों की बौद्धों से दूरी तो और भी अधिक है। वास्तव में सांख्य प्रभाव को हटाकर वैदिकों के नीति-निर्णायकतत्त्व को देखना चाहें तो वेद के वचन और मीमांसा के निर्णयों को छोड़कर कोई आधार नहीं रह जाता, जिस पर पाप-पुण्य परिभाषित किए जा सकें। दूसरी ओर मीमांसकों की दृष्टि कभी भी यज्ञों से स्वतन्त्र होती नहीं है। इस स्थिति में धर्म एवं नीति के निर्णय के लिए स्वतन्त्र अवसर समाप्त हो जाता है। अहिंसा : अनुकूल प्रतिकूल वृत्तियाँ अहिंसा हिंसा के विरोध में समझी जाती है। इसलिए अहिंसा के स्पष्टीकरण के लिए देखना होगा कि हिंसा का उदय मन की किन परिस्थितियों में होता है और उस परिस्थिति में उसके विरोध में क्या-क्या लक्षण खड़े होते हैं। सामान्यतः हिंसा प्राणातिपात से जानी जाती है। प्राण का अर्थ जीवित या जीवन है, प्राण वह वायु है, जो एक प्रकार की ऊष्मा है, जो शरीर और चित के आश्रित है, उसके सातत्य को तोड़ देना उसका अतिपात या पतन करना है। क्षणिकवाद में मृत्यु का अर्थ प्रदीप-निरोध (वर्तमान शरीर के साथ नहीं रहना) अथवा जीवित रहने के संस्कार के निरोध से अधिक नहीं है। हाँ, कोई भी प्राणातिपात दोष के रूप में तब माना जायेगा, जब पहले से उसकी योजना (संज्ञा) हो और पूर्व निश्चित प्राणी ही मारा जाए, इसमें किसी प्रकार का सन्देह या विपर्यय न हो-"प्राणातिपातः संचिन्त्य परस्याभ्रान्तिमारणम् ।" (अ० को० ४।७३) ___ मन में यह चेतना आने के लिए यह भी आवश्यक है कि शरीर और वाणी उसमें प्रवृत्त हों, जो मनका माध्यम बने-“तस्मि पन पाणे जीवितीन्द्रियुपच्छेदक-उपक्कमसमुठ्ठापिका काय-वचीद्वारानं अञ्जतरद्वारप्पवत्ता वधकचेतना पाणातिपातो" (अट्ठसा० ८०) और उसकी स्थिति को विज्ञापित करें। बौद्ध लोग किसी मनोवृत्ति की अच्छाई या बुराई के निर्णय के लिए जितने प्रतिबन्ध मानते हैं, उन सबके तीन संकाय पत्रिका-१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014028
Book TitleShramanvidya Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1983
Total Pages402
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size14 MB
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