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________________ १२ श्रमण विद्या पापभागी होगा। उत्तर में बोधिसत्त्व ने कहा कोई असंयत व्यक्ति अपने पुत्रादि का बध करके भी भोजन दान देता है, यदि भोजन करने वाला प्रज्ञावान एवं सचेत है तो वह पापलिप्त नहीं होगा । जैन लोग जिन चार प्रकार की हिंसा का निषेध करते हैं, उससे जीवन में किसी भी प्रकार की बाह्य हिंसा का अवसर नहीं रह जाता। जैन लोग आलोयणा, पक्किमण आदि दस प्रकार के प्रायश्चित मानते हैं । (ठाणांग १० ठा० ) । उनमें अधिकांशतः तप की ही प्रधानता है । बौद्धसम्मत पाराजिक, संघादिसे सादि प्रायश्चितों में देहदण्ड या तप का स्थान ही नहीं है । सबमें आत्मालोचन, दोषस्वीकार क्षमा-याचना आदि हैं । बौद्धों में सबसे बड़ा प्रायश्चित संघ से कुछ दिनों के लिए या सदा के लिए निष्कासन है, किन्तु जैनों के यहाँ कायोत्सर्ग तक आदिष्ट है । वैदिक परम्परा में प्रधान रूप से प्रायश्चित का विधान यज्ञीय विधियों में किसी अंग की कमी होने पर उसे पूरा करने के लिए दान करने के लिए अथवा पापमोचन के उद्देश्य से तप करने के लिए है । इसी दृष्टि से वैदिक लोग प्रायश्चित का अर्थ भी तप का निश्चय करते हैं । ऐसा नहीं कि जैन और वैदिक आलोचना या क्षमायाचना को प्रायश्चित का साधन मानते ही नहीं, किन्तु उनके मत में अपराध निवारण का प्रमुख क्षेत्र तप और यज्ञ ही है । इन सबका संग्रह "यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम्" इस गीतावचन में आ जाता है। याज्ञिकों से जैनों का इतना अन्तर अवश्य है कि जैन अपराध का क्षेत्र मनोभूमि मानते हैं, किन्तु दण्ड का क्षेत्र देह आदि बाह्य को । बौद्ध सभी स्थिति में चेतना और मन को प्रधानता देते हैं- "चित्तजेट्टकं, चित्तधुरं चित्तपुब्बङ्गमं होति ।" उनके मत में मन द्वारा की गई दुःशीलताओं से बचाव भी मानसिक ही होगा, क्योंकि मिथ्या दृष्टि और संकल्प आदि उसके सभी सहयोगी मानसिक ही होते हैं - "चित्तसंकिलेसा भिक्खवे, सत्ता संकिलिस्सन्ति चित्तवोदाना विसुज्झन्ति ।" (सं० ३।१५१) । यह कोई आवश्यक नहीं है कि शरीर आदि से वध कर दिया जाए तभी मन में हिंसा चेतना उत्पन्न हो, बल्कि उसके बिना भी उच्छिन्न कर दूं, विनष्ट कर दूं - इस प्रकार की व्यापादवृत्ति उत्पन्न हो जाने पर मनःकर्म उत्पन्न हो जाता है । कभी-कभी यह भी होता है कि काय तथा वाक् कर्म मनोद्वार तक पहुँचते ही नहीं । ऐसी स्थिति में वह दुश्चरित की कोटि में भी नहीं आएगा काय-कर्म वाक्-कर्म कह सकते हैं । इसके विपरीत मनः कर्म ज्ञापक माध्यमों में उपस्थित हो सकता है । यह अवश्य है उस स्थिति को केवल काय वाक् आदि सभी कि अनुशासन की दृष्टि संकाय पत्रिका - १ Jain Education International For Private & Personal Use Only । www.jainelibrary.org
SR No.014028
Book TitleShramanvidya Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1983
Total Pages402
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size14 MB
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