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________________ अहिंसा : अध्ययन की एक दिशा የፃ निर्णय स्वीकार किया गया, जो बुद्धि का ही धर्म था । इसीलिए बाद में सांख्य के माध्यम से वैदिक परम्परा मे अहिंसा का महत्त्व बढ़ा हुआ पाया जाता है । परवर्ती काल में अहिंसा को सभी ने मानसिक गुण मान लिया, किन्तु उसमें भी प्रमुखता - अप्रमुखता की दृष्टि से और प्रयोग-भेद से बहुत बड़ा अन्तर है । जैन और वैदिक उसके बाह्य रूप पर अधिक जोर देते हैं, क्योंकि वे बौद्धों की तरह मन या चेतना को ही कर्म नहीं मान लेते । यह तब और स्पष्ट हो जाता है, जब पाप के प्रायश्चित्त के लिए जैन और वैदिक तप के द्वारा विविध प्रकार से देह को दण्डित करते हैं अथवा यज्ञ में में पशुओं का वध और अधिकाधिक द्रव्य व्यय कर देते हैं । नालन्दा के समक्ष बुद्ध दीर्घतपस्वी नाम के एक जैन निगंठ साधु ने अपने शास्ता महावीर का सिद्धान्त कायदण्ड, वाग्दण्ड और मनोदण्ड बताया तो बुद्ध ने अपना सिद्धान्त कायकम्म, वचीकम्म तथा मनोकम्म कहा और उसमें भी बुद्ध ने काय और वाक् कर्मों को आनुषङ्गिक बताया और एकमात्र मनः कर्म को ही महत्त्व दिया । बुद्ध कहते हैं कि सभी मनुष्य चित्तगत क्लेशों से दुःखी हैं और उसके मिटाने से ही दुःख मिटेंगे । यदि चित्त सुरक्षित न रहा तो काय, वाक् तथा मनः कर्म सभी असुरक्षित हो जाएँगे । बुद्ध कर्म की सत्ता वहाँ मानते हैं, जहाँ से वह उठता है और वह मन है, काय और वाक् उसका विज्ञापन मात्र करते हैं "अहं तपसि तिष्णं कम्मानं मनोकम्मं महासावज्जतरं पञ्ञपेमि ।" (म० नि० उपालि सु० ) इसीलिए उनकी अहिंसा जैनों से भिन्न हो जाती है। जैन किसी भी दशा में मांसाहार को नहीं स्वीकारते, जबकि बुद्ध चित्त से उसका प्रत्यक्ष सम्बन्ध होने पर ही निषिद्ध मानते हैं । सिंह सेनापति के यहाँ बुद्ध और संघ के मांस भोजन पर जैनों ने नगर में - "अज्ज सोहेन थूलं पसुं बधित्वा समणस्य गोतमस्स भत्तं कतं" ऐसा कहकर हाहाकार मचा दिया। उस समय बुद्ध ने बताया कि यदि उसी उद्देश्य से वध किया गया हो और वह ज्ञात हो तो उसे नहीं खाना चाहिये, इसलिए"अनुजानामि भिक्खवे, तिकोटिपरिसुद्धं मच्छमंसं अदिट्ठे असुतं अपरिसंकितं ति ।" (वि० प० महाभेषज्जसुत्त) Jain Education International एक ब्राह्मण बोधिसत्त्व बहुत दिनों तक हिमालय में रहने के बाद अपनी जीभ नमक मिर्च आदि से चरपरी करने के लिए भिक्षा लेने शहर में आया । एक गृहस्थ ने उन्हें बदनाम करने के लिए समांस भोजन खिलाया और कहने लगा कि मैंने सोच-समझ कर वध किया और मांस पकाया था, उसे खाने वाला अवश्य ही संकाय पत्रिका - १ - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014028
Book TitleShramanvidya Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1983
Total Pages402
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size14 MB
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