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________________ श्रमण विद्या से उन्हें यह सूझने लगा होगा कि मनुष्य और पशुओं के बीच यदि इस प्रकार के सौमनस्य की संभावना है, तो मनुष्य-मनुष्य के बीच वह सम्भव क्यों नहीं ? समाज में उत्तरोत्तर बढ़ती हुई अशान्ति और वैषम्य का अन्त न देख कर परम्परा से प्रचलित और शास्त्रों में प्रतिपादित इन धार्मिक एवं सामाजिक कार्यकलापों के प्रति जनसाधारण में उनका महत्त्व घटने लगा और तत्त्वचिन्तकों के प्रयासों से कुछ नये निष्कर्ष निकलने लगे। द्वेषपूर्ण कार्यों से, हिंसापूर्ण अनुष्ठानों से, भोग-विलास से, लोक में फैले द्वेष, अशान्ति और दुःख को मिटाया नहीं जा सकता, यह तथ्य स्पष्ट होने लगा । इन मानसिक प्रतिघातों में से अहिंसा का स्वरूप स्पष्ट होने लगा। ऊपर वणित चित्र के पीछे केवल सम्भावनाएँ नहीं हैं, अपितु उसकी प्रामाणिकता के लिए अथर्ववेद, उपनिषद्, महावीर और बुद्ध के समसामयिक समाज में व्याप्त दुरवस्था तथा उसके विरोध में विविध विरक्त सम्प्रदायों तथा महावीर, बुद्ध आदि महापुरुषों द्वारा किये गये आन्दोलन एवं प्रवचन साक्षी हैं। अहिंसा : चेतना और कर्म अहिंसा के स्थूल संकेतों का उद्गम व्यावहारिक घात-प्रतिघातों के बीच संभव है, किन्तु उतने मात्र से उसे प्रतिष्ठा और मान्यता नहीं मिल सकती थी। प्रतिष्ठा के लिए कोई सूक्ष्म और गम्भीर आधार चाहिए जो मनुष्य में महत्त्वपूर्ण स्थान बना सके, ऐसा उसके मानसिक गुण ही हो सकते हैं। वास्तव में व्यवहार का केवल बाह्य-पक्ष किसी भी कर्म के अच्छा या बुरा होने का निर्णायक नहीं हो सकता। कर्म का मूल उसकी चेतना है। उस प्रेरक चेतना के विश्लेषण के आधार पर ही नैतिक दृष्टि से सदाचार और अनाचार का निर्णय लिया जा सकता है। इसी दृष्टि से बुद्ध ने चेतना को ही कर्म कहना उचित समझा"चेतनाहं भिक्खवे, कम्मं वदामि। चेतयित्वा कम्मं करोति कायेन वाचायि मनसा।" __ (अ० ३-४१५) चेतना ही अपने साथ सभी प्रकार की वृत्तियों को लेकर कार्यविशेष में जुटती है और उसी का अनुसरण मनुष्य के काय, वाक् और मन भी करते हैं। जैनों का 'भाव-कर्म' अन्य द्रव्य कर्मों से श्रेष्ठ है, जो एक प्रकार की चेतना है, वह आत्मा में संस्कारविशेष के रूप में स्थित रहती है"स्वयमेवात्मनाऽऽत्मानं हिनस्त्यात्मा प्रमाववान्।" (सर्वार्थसिद्धि, सू० ७।१३) । प्राचीन वैदिकों में सत्कर्म, दुष्कर्म सभी देवताओं के या ईश्वर के हाथ था, किन्तु परवर्ती सांख्य से प्रभावित होकर त्रिगुणों के आधार पर उनका उद्गम और संकाय पत्रिका-१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014028
Book TitleShramanvidya Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1983
Total Pages402
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size14 MB
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