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________________ अहिंसा : अध्ययन की एक दिशा त्मिक साधना का क्षेत्र है, वह व्यक्तिगत किन्तु सफल प्रयोग की दृष्टि से बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। इस अन्तरंग विवेचन में यह देखा जा सकता है कि प्राचीन भारत की मनीषा या उत्क्रान्ति अहिंसा के विकास की किस मंजिल तक पहुंची थी और बाद में महात्मा गांधी के युगान्तकारी प्रयासों से सामाजिक एवं राजनीतिक प्रयोगों से उसमें क्या प्रगति हुई। इसके आधार पर हम अहिंसा के भविष्य की संभावनाएँ भी आकलित कर सकते हैं । अहिंसा का उद्गम मानवीय विकास के किस स्तर पर किस क्रम में मानव-मन में अहिंसा का बीज अंकुरित हुआ होगा, इसका अध्ययन महत्त्वपूर्ण होते हुए भी यहाँ विकसित समाज के बीच ही उसके उद्गम को समझना अभीष्ट है। किसी स्थानविशेष में कब और कैसे इसका विकास हुआ, इसका निश्चय करना भी कम कठिन नहीं है। यहाँ तक कि ऐतिहासिक तिथियों के आधार पर यह नहीं कहा जा सकता है कि अहिंसा का उद्गम भारतवर्ष में कब और कहाँ हुआ, किन्तु इतना विश्वास पूर्वक कहा जा सकता है कि दिन-प्रतिदिन के व्यावहारिक घात-प्रतिघातों में से ही यह भावना उद्गत हुई होगी। उसका काल ऋग्वेद के बाद भगवान् बुद्ध तक, लगभग एक सहस्र वर्षों का होना चाहिए। यह काल ऐसी संस्कृति और धर्म-विशेष को प्रतिष्ठित करने का है, जो अपने को जाति, विद्या और शक्ति में बहुजन से श्रेष्ठ समझती थी और एकराट्, अधिराट् राज्यों के विस्तार के लिए तत्पर थी। तत्कालीन समाज में आध्यात्मिक दृष्टि से चेतन लोगों को प्रतिदिन की नोच-खसोट, युद्धों की खून-खराबी, यज्ञ-यागादि, धार्मिक कर्मकाण्डों के नाम पर पशुहिंसा, सुरामैरेय, हिरण्यादिदान से महीनों और वर्षों चलने वाले सत्रों के कोलाहल में अपने को मानसिक दृष्टि से सन्तुलित रखना तथा व्यावहारिक बाधाओं से बचाए रखना मुश्किल होने लगा होगा। इस विषम स्थिति में से ही कुछ मनीषियों को पहले समाज के प्रति उदासीनता की वृत्ति पैदा हुई होगी। किन्तु उदासीनता पुरुषकार को सीमित करने लगती है और वह व्यक्ति की दृष्टि से भी समस्याओं का पूरा हल नहीं देती, अतः उन्हें किसी ऐसी शक्ति की तलाश होगी, जिसके द्वारा वे विरुद्ध परिस्थितियों में भी अपने को अविचलित एवं निःसंग रख सकें और समाज पर भी अपने विशेष आचरण का अनुकूल प्रभाव डाल सकें। इस चिन्तन एवं शोध-प्रक्रिया में से ही अहिंसा-वृत्ति का भान होगे लगा होगा। ऐसे उदासीन मुनियों का अपनी गुफाओं के इर्द-गिर्द आने जाने और रहने वाले पशुओं से सम्पर्क होता होगा। फलतः अपने प्यार और संग का प्रभाव उन विजातीय सहवासियों पर पड़ता देख उन्हें अपने मानसिक गुण और सौम्य व्यवहार पर भरोसा बढ़ता गया। इसी पर संकाय पत्रिका-१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014028
Book TitleShramanvidya Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1983
Total Pages402
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size14 MB
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