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________________ श्रमण विद्या उपदेशमाला, कथाकोश आदि इस प्रकार के अध्ययन में उपयोगी हैं। उदाहरणस्वरूप व्याघ्री जातक के आदर्श को लें-बोधिसत्त्व ने दूर से भूख से तड़फड़ाती व्याघ्री को, जो तत्काल प्रसव से पैदा हुए अपने ही बच्चों को खाने जा रही थी, देख, अपने अनुयायी शिष्य को कुछ ले आने के लिए भेज कर स्वयं अपने को ही समर्पित कर दिया और व्याघ्री के बच्चों को और अपने शिष्य को बचा लिया। ढूँढ़ते हुए शिष्य ने अन्त में गुरु की हड्डियाँ ही प्राप्त की। इस अहिंसक आदर्श के जबाब में कालिदास के रघुवंश में गुरु की गौ नन्दिनी को बचाने के लिए व्याघ्र के समक्ष अपने को समर्पित न करके क्षत्रिय धर्म के अनुसार दिलीप ने बाण खींचा, किन्तु तरकस से हाथ सट जाने के कारण स्वयं अपने को ही अर्पित कर देना चाहा। इस घटना की पूरी संरचना और वहाँ के कथोपकथन से क्षत्रिय धर्म की श्रेष्ठता और हिंसा की कथंचित् उपयोगिता स्पष्ट की जाती है । अश्वघोष और कालिदास के सभी काव्य एवं नाटक इस दृष्टि से हिंसा-अहिंसा के बीच वाद-प्रतिवाद के रूप में मिलते हैं । महाभारत भी इस दृष्टि से बहुत ही सम्पन्न है। गीता के अतिप्रसिद्ध प्रसंग को ही लें- अर्जुन द्वारा प्रारम्भ में यद्यपि उत्कृष्ट कोटि की त्यागपूर्ण अहिंसा-वृत्ति का उल्लेख कराया गया है, किन्तु उसके जबाब में पूरी गीता में अहिंसा के गुणों को मात्र अनासक्ति से ही समन्वित कर क्षात्र-धर्म और हिंसा को ही श्रेष्ठ रूप में खड़ा किया गया है। इस प्रकार के प्रसंगों के सूक्ष्म अध्ययन से हम केवल अपनी संस्कृति को ही नहीं पहचानेंगे, अपितु उससे हमें हिंसा और अहिंसा के मूलभूत प्रश्नों को लेकर आधुनिक सन्दर्भ में भी सोचने में सहायता मिलेगी। भारतीय जीवन में अहिंसा के सम्बन्ध में हजारों वर्षों से अन्तःशोध तथा व्यावहारिक प्रयोग चल रहे हैं, किन्तु अभी तक वे अपनी प्रयोगावस्था में ही हैं। किसी प्रयोग को दर्शन की कोटि में आने के लिए यह आवश्यक है कि विभिन्न प्रयोगों और मान्यताओं के आधार पर विचार प्रतिफलित हों और वे परम्परागत विचार प्रयोगों से समर्थित एवं परीक्षित हों। भारतवर्ष ने इस विषय में ऐतिहासिकअनैतिहासिक विस्तृतकाल में जो अनुभव प्राप्त किये हैं, किसी निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए उनका पर्याप्त विश्लेषण होना चाहिए । भगवान् महावीर और बुद्ध ने अहिंसा का दार्शनिक आधार भी प्रस्तुत किया है। इस दृष्टि से अनेकान्तवाद और मध्यममार्ग का अध्ययन किया जाना चाहिए। इसी प्रकार परवर्ती वैष्णव आचार्यों द्वारा भी इस दिशा में कुछ कार्य किया गया है, जिसका मूल्यांकन महत्त्वपूर्ण होगा। इन दृष्टियों से इस निबन्ध में कुछ ऐतिहासिक और सांस्कृतिक तथ्यों की ओर ध्यान आकृष्ट किया गया है। किन्तु यह सब अहिंसा का बहिरंग स्वरूप है। उसका जो अन्तरंग है, अर्थात् उसके अपने अन्दर का ही स्वगत विकास है, जो विशेष रूप से मानसिक और आध्यासकाय पत्रिका-१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014028
Book TitleShramanvidya Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1983
Total Pages402
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size14 MB
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