SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 310
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन परम्परा में श्रमण और उसकी आचार संहिता २८९ विशुद्ध आहार दिन में एक बार ही ग्रहण करना चाहिए ।' वस्तुतः श्रमण संयम, ज्ञान, ध्यान और अध्ययन की साधना वृद्धि के लिए ही जैसा मिला वैसा ही शुद्ध रूप में आहार लेने की आवश्यकता समझते हैं। उसकी पूर्ति एक बार में ग्रहण किये गये सीमित आहार से हो ही जाती है। और फिर आत्मसाधना, संयम पालन आदि में विशुद्धता एक बार के प्रासुक एवं सात्त्विक आहार से आ सकती है, एकाधिक बार आहार ग्रहण से शिथिलाचार में प्रवृत्ति बढ़ती है। लोच से लेकर एकभक्त तक के शेष सात मूलगुण श्रमण के बाह्य चिह्न माने जाते हैं। ये गुण जीवन की सहजता, स्वाभाविकता के प्रतीक हैं । ये श्रमण को प्रकृति के साथ तादात्म्य स्थापित करने, अपने को और अपने शरीर को कष्ट सहिष्णु बनाने तथा लोकलज्जा एवं लोकभय से ऊपर उठने के लिए महत्त्वपूर्ण भूमिका प्रदान करते हैं। इन्हीं गुणों से श्रमण को प्रतिपल यह प्रतीति भी होती रहती है कि यह शरीर आत्मा से भिन्न है और इसे सुविधावादिता की अपेक्षा जितना सहज रखा जायेगा आत्मोपलब्धि में उतनी ही वृद्धि होती रहेगी। उपसंहार श्रमण उपयुक्त अट्ठाईस मूल गुणों को अप्रमत्त भाव से पालन करके जगत्पूज्य होकर अक्षय-सुख मोक्ष को प्राप्त करता है। इन मूलगुणों के निरतिचार पालन के बाद जिन अन्यान्य गुणों के पालन का विधान किया गया है उन्हें 'उत्तरगुण' कहा गया है । मूलगुणों की रक्षा हेतु चरित्र रूप वृक्ष की शाखा-प्रशाखाओं की तरह उत्तरगुणों का भी श्रमणाचार में महत्त्वपूर्ण स्थान है। उत्तरगुण इस प्रकार हैंबारह तप-छः बाह्य तप-यथा-अनशन, अवमौदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्तशय्यासन और कायक्लेश । छः आन्तरिक तप-प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्त्य, स्वाध्याय, ध्यान और व्युत्सर्ग (कायोत्सर्ग)। पाँच प्रकार का आचार-दर्शन, ज्ञान, चरित्र, तप और वीर्य । दश धर्म-क्षान्ति (क्षमा), मार्दव, आर्जव, सत्य, लाघव (शौच), संयम, तप, त्याग, आकिंचन और ब्रह्मचर्य। इनके साथ ही चौरासी लाख प्रकार के शील, बाईस परीषह तथा बारह अनुप्रेक्षा-भावना-ये सभी उत्तरगुणों के अन्तर्गत आते हैं। श्रमण की अवधारणा तथा उसकी आचार संहिता संबंधी मूलगुणों आदि विषयों का अतिसूक्ष्म विवेचन आचार विषयक सम्पूर्ण जैन साहित्य में किया गया १. प्रवचनसार २२९. २. रयणसार ११३. संकाय पत्रिका-१ २७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014028
Book TitleShramanvidya Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1983
Total Pages402
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy