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________________ २८८ श्रमणविद्या क्षितिशयन सामान्यतः पर्यङ्क, विस्तर आदि का सर्वथा वर्जन करके शुद्ध जमीन में शयन करना क्षितिशयत है । मूलाचार में कहा है-आत्मप्रमाण, असंस्तरित, एकान्त, प्रासुक भूमि में धनुर्दण्डाकार मुद्रा में एक करवट से शयन करना क्षितिशयन मूलगुण है।' अदन्तघर्षण शरीर विषयक संस्कार श्रमण को निषिद्ध कहे गये हैं। अतः अंगुली, नख, दातौन, कलि (तृणविशेष), पत्थर और छाल-इन सबके द्वारा तथा इनके ही समान अन्य साधनों के द्वारा दाँतों को साफ न करना अदन्तघर्षण मूलगुण है। इसका उद्देश्य इन्द्रिय संयम का पालन तथा शरीर के प्रति अनासक्त भाव में वृद्धि करना है। स्थित-भोजन ___शुद्ध भूमि में दीवाल, स्तम्भादि के आश्रयरहित समपाद खड़े होकर अपने हाथों को ही पात्र बनाकर आहार ग्रहण करना स्थित-भोजन है। प्राणिसंयम और इन्द्रियसंयम के पालन हेतु जब तक श्रमण के हाथ-पैर चलते हैं अर्थात् शरीर में सामर्थ्य है तब तक खड़े होकर पाणि-पात्र में आहार ग्रहण करना चाहिए, अन्य विशेष पात्रों में नहीं। एकभक्त सूर्योदय के अनन्तर तीन घड़ी व्यतीत होने के बाद तथा सूर्यास्त होने के तीन घड़ी पूर्व तक दिन में एक बार एक बेला में आहार ग्रहण कर लेना एकभक्त मूलगुण है।" प्रवचनसार में कहा है कि-भूख से कम, यथालब्ध, दोषरहित, भिक्षावृत्ति पूर्वक १. फासुयभूमिपएसे अप्पमसंथारिदम्हि पच्छण्णे । दंडंधणुव्व सेज्जं खिदिसयणं एपपासेण ।। मूलाचार १।३२. २. अंगुलिणहावलेहणिकलीहिं पासाणछल्लियादीहिं । दंतमलासोहणयं संजमगुत्ती अदंतमणं । वही १।३३. ३. अंजलिपुडेण ठिच्चा कुड्डाइविवज्जणेण समपायं । पडिसुद्ध भूमितिए असणं ठिदिभोयणं णाम ॥ वही १।३४. ४. मूलाचार वृत्ति ११३४. ५. उदयत्थमणे काले णालीतियवज्जियम्हि मज्झम्हि । एकम्हि दुअ तिए वा मुहुत्तकालेयभत्तं तु ॥ मूलाचार १३५. संकाय पत्रिका-१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014028
Book TitleShramanvidya Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1983
Total Pages402
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size14 MB
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