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________________ जन परम्परा में श्रमण और उसकी आचार संहिता २८७ दिगम्बर परम्परा इसी अचेलक धर्म पर आधारित हैं ही किन्तु श्वेताम्बर परम्परा में भी आचेलक्य. (नग्नता) गुण की प्रशंसा कई प्रसंगों में की गई है। परीषहों तथा दस स्थितिकल्पों में अचेलकता का विधान है। आचारांग सूत्र में कहा है :-जो मुनि निर्वस्त्र रहता है, वह अवमौदर्य तप का अनुशीलन करता है।' इसी में कहा है-साधक को अन्तर्बाह्य ग्रन्थियों से मुक्त होकर विचरण करना चाहिए। इसी में अचेल परीषह सहते हुए परिव्रजन करने का भी उल्लेख है। सूत्रकृताङ्ग में भी नग्नता की प्रतिष्ठा श्रमण के लिए निर्दिष्ट की गयी है। उपलब्ध अर्धमागधी आगमों के व्याख्याकारों ने 'अचेल' शब्द की व्याख्या 'अल्पवस्त्र' के रूप में कर दी है। वस्तुतः निर्वस्त्र मुद्रा विश्वास उत्पन्न कराने में सहायक है । विषय सुखों के प्रति अनासक्ति, सर्वत्र आत्मवशता और शीतादि परीषहों के सहन की शक्ति इससे व्यक्त होती है। अस्नान जलस्नान, अभ्यंग स्नान और उबटन त्याग तथा नख, केश, दन्त, ओष्ठ,कान, नाक, मुंह, आँख, भौंह तथा हाथ-पैर-इन सबके संस्कार का त्याग अस्नान नामक प्रकृष्ट मूलगुण है ।" वस्तुतः आत्मदर्शी श्रमण तो आत्मा की पवित्रता से स्वयं पवित्र होते हैं, अतः उन्हें वाह्य स्नान से प्रयोजन ही क्या ? आचार्य वसुनन्दि ने मूलाचारवृत्ति में कहा है कि श्रमण को स्नान से नहीं अपितु व्रतों से पवित्र होना चाहिए। यदि व्रतरहित प्राणी जलावगाहनादि से पवित्र हो जाते तो मत्स्य, मगर आदि जल-जन्तु तथा अन्य सामान्य प्राणी भी पवित्र हो जाते किन्तु ये कभी भी उससे पवित्रता को प्राप्त नहीं होते । अतः व्रत, संयम-नियम ही पवित्रता के कारण है। इन्हीं सब कारणों से श्रमण को स्नान आदि संस्कारों से सर्वथा विरत रहने तथा आत्म स्वरूप की प्राप्ति में उपयोग लगाए रखने के लिए अस्नान मूलगुण का विधान अनिवार्य माना है। १. जे अचेले परिव सिए संचिक्खति ओमोयरियाए । आचारांग ६।२।४०. २. वही १1८1८. ३. वही ६।२।४५. ४. जस्सट्टाए कीरई नग्गभावे मुंडभावे ।--सूत्रकृताङ्ग सूत्र ७१४ पृ० १८५. ५. हाणादिवज्जणेण य विलित्तजल्लमलसेदसव्वंगं । अण्हाणं घोरगुणं संजमदुगपालयं मुणिणो ॥ मूलाचार १।३१. ६. अनगारधर्मामृत ९।९८. ७. मूलाचारवृत्ति १।६१. संकाय पत्रिका-१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014028
Book TitleShramanvidya Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1983
Total Pages402
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size14 MB
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