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________________ जैन परम्परा में श्रमण और उसकी आचार संहिता २७१ है।' आगे कहा है--मार्गशुद्धि (जीवादि रहित निर्दोष मार्ग), उद्योत शुद्धि (सूर्य का प्रकाश), उपयोग शुद्धि (इन्द्रिय विषयों की चेष्टा रहित तथा ज्ञान-दर्शन रूप उपयोग सहित), तथा आलंबनशद्धि (देव, गुरु, तीर्थ वंदनादि आलंबन अर्थात् प्रयोजन) इन चार शुद्धियों के आश्रयपूर्वक श्रमणों की गमन रूप प्रवृत्ति को ईर्या समिति कहते हैं। इसके अन्तर्गत चलते समय बातचीत, अध्ययन, चिन्तन आदि कार्य भी निषिद्ध हैं। क्योंकि इन कार्यों को करते हुए चलने पर न तो गमन ही सावधानी पूर्वक होगा और न ये कार्य । श्रमण को धीमे, उद्वेगरहित होकर तथा चित्त की आकुलता मिटाकर चलना चाहिए। (२) भाषा ___ वाणी विषयक संयम को भाषा समिति कहते हैं। अर्थात् किसी को मेरे वचनों से किसी भी प्रकार की पीड़ा न पहुँचे इस उद्देश्य से पैशून्य (मिथ्यारोपण), उपहास्य, कर्कश, पर-निन्दा, आत्मप्रशंसा तथा राग-द्वेष-वर्धक विकथाओं (चर्चाओं) आदि का त्याग करके स्व-पर हितकारी वचन बोलना भाषा समिति है।। (३) एषणा इसका सामान्य अर्थ आहार या भिक्षाचर्या विषयक विवेक है। अर्थात् आहार से संबंधित उद्गमादि छयालीस दोषों से रहित, असाताकम के उदय से उत्पन्न बुभुक्षा के प्रतिकार एवं वैयावृत्त्यादि धर्मसाधन सहित, मन वचन, काय एवं कृत, कारित, अनुमोदना आदि नव विकल्पों से रहित, टंडे-गरम आदि रूप, राग-द्वेष रहित, समभाव पूर्वक विशुद्ध आहार ग्रहण करना एषणा समिति है। वस्तुतः श्रमण १. फासुयमग्गेण दिवा जुगंतरप्पे हिणा सकज्जेण । जंतूणि परिहरंतेणि रियास मिदी हवे गमणं ।। मूलाचार १।११. २. मग्गुज्जोवुपओगालंबणसुद्धीहि इरियदो मुणिणो । सुत्ताणुवीचि भणिया इरियास मिदी पवयणम्मि ।। मूलाचार ५।१०५. ३. दशवकालिक ५।१।२. ४. पेसुण्णहासकक्कसपरणिदाप्पप्पसंसाविकहादी । वज्जित्ता सपरहियं भासास मिदी हवे कहण ।। मूलाचार १।१२. ५. छादालदोससुद्ध कारणजुत्तं विसुद्धणवकोडी। सीदादीसमभुत्ती परिसुद्धा एसणासमिदी । मूलाचार १।१३. संकाय पत्रिका-१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014028
Book TitleShramanvidya Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1983
Total Pages402
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size14 MB
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