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समिति
श्रमण के मूलगुणों में महाव्रतों के बाद चारित्र एवं संयम की प्रवृत्ति हेतु ईर्या, भाषा, एषणा, निक्षेपादान एवं प्रतिष्ठापनिका -- इन पांच समितियों का क्रम है ।" महाव्रतमूलक सम्पूर्ण श्रमणाचार का व्यवहार इनके द्वारा संचालित होता है । इन्हीं के आधार पर महाव्रतों का निर्विघ्न पालन सम्भव है । क्योंकि ये समितियाँ महाव्रतों तथा सम्पूर्ण आचार की परिपोषक प्रणालियाँ हैं । अहिंसा आदि महाव्रतों के रक्षार्थ गमनागमन, भाषण, आहार ग्रहण, वस्तुओं के उठानेरखने, मलमूत्र विसर्जन आदि क्रियाओं में प्रमादरहित सम्यक् प्रवृत्ति के द्वारा जीवों की रक्षा करना तथा सदा उनके रक्षण की भावना रखना समिति है । जीवों से भरे इस संसार में समितिपूर्वक प्रवृत्ति करने वाला श्रमण हिंसा से उसी प्रकार लिप्त नहीं होता जैसे स्नेहगुण युक्त कमल-पत्र पानी से । जैसा कि प्रवचनसार में आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा भी है- जीव मरे या जीये, अयत्नाचारी को हिंसा का दोष अवश्य लगता है । किन्तु जो समितियों में प्रयत्नशील है उसको बाह्य हिंसा मात्र से कर्मबन्ध नहीं होता । वस्तुतः ये पांचों समितियां चारित्र के क्षेत्र में प्रवृत्ति - परक होती हैं । इन समितियों में प्रवृत्ति से सर्वत्र एवं सर्वदा गुणों की प्राप्ति तथा हिंसा आदि पापों से निवृत्ति होती है । इन समितियों का विवेचन यहाँ प्रस्तुत है ।
(१) ईर्या
भ्रमणविद्या
इसका सामान्य अर्थ है गमनागमन विषयक यत्नाचार | अर्थात् क्षुद्र जीव भी पैरों के नीचे आकर मर न जाए, ऐसा प्रयत्नमन रहना । मूलाचारकार के अनुसार - जिसमें प्राणियों का गमनागमन होता रहता हो, ऐसे प्रासुक मार्ग से कार्यवश ही दिन के समय अर्थात् सूर्य के प्रकाश में चार हाथ परिमाण भूमि को आगे देखते हुए, साथ ही जीवों की विराधना बचाते हुए संयमपूर्वक गमन करना ईर्या समिति
१.
इरिमाभासा एसण णिक्खेवादाणमेव समिदीओ ।
पदिठावणिया य तहा उच्चारादीण पंचविहा । मूलाचार १।१०.
२.
मूलाचार ५।१२९-१३२.
३. मरदु व जियदु व जीवो अयदाचारस्स णिच्छिदा हिंसा | पयदस्स पत्थि बंधो हिंसामेत्तेण समिदीसु ।। प्रवचनसार ३१७.
संकाय पत्रिका - १
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