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________________ जन परम्परा में श्रमण और उसकी आचार संहिता २६९ परिग्रह के दस भेद हैं--क्षेत्र, वास्तु, धन, धान्य, द्विपद, चतुष्पद, यान, शयनासन, कुप्य (वस्त्र) और भाण्ड (पात्र)। इस प्रकार अन्तरंग और बाह्य इन दोनों परिग्रहों के ये चौबीस भेद हैं।' इन सबका मन, वचन और काय पूर्वक स्याग से ही अपरिग्रह महाव्रत सिद्ध होता है, वही परिग्रह को त्याग सकता है। इस प्रकार पांच महाव्रतों के विवेचन में जैन धर्म के प्राणस्वरूप अहिंसा सिद्धान्त की भावना का प्राधान्य ही दृष्टिगोचर होता है। इसी की विशुद्धि के लिए आचारविचार संबंधी अनेक भेदोपभेदों का प्रतिपादन हुआ है। इसीलिए श्रमण की प्रत्येक आचारमूलक क्रिया अहिंसापरक होती है उपर्युक्त पांच महाव्रत भगवान् महावीर द्वारा प्रवर्तित हैं । उत्तराध्ययनसूत्र आदि ग्रन्थों में भगवान् महावीर से पूर्व तेइसवें तीर्थकर पार्श्वनाथ की परम्परा में चातु याम धर्म प्रचलित था। इस परम्परा में ब्रह्मचर्य को अपरिग्रह के अन्तर्गत माना जाता था। पांच महाव्रत एक दूसरे के पूरक और सहयोगी हैं, क्योंकि इनके विपरीत हिंसा, असत्य, चोरी, अब्रह्मचर्य (कुशील) और परिग्रह-इन पांच पापों या अव्रतों में से किसी एक का भी आचरण करने वाला शेष अव्रतों के आचरण से बच नहीं सकता। परिग्रह रखने वाला हिंसा से नहीं बच सकता और न हिंसा करने वाला परिग्रह से ही। इन सब अव्रतों के मूल में राग और द्वेष -ये दो विकारी प्रवृत्तियाँ काम करती है । हिंसा, परिग्रहादि तो उनके पर्याप हैं। इन्हीं दोनों से प्रेरित होकर जब कोई परिग्रह की आकांक्षा करता है तो हिंसा आदि सभी अव्रत अपने आप आ जाते हैं। अमृतचन्द्रसूरि ने भी कहा है-रागभाव हिंसा है, अतः असत्य, चोरी, कुशील एवं परिग्रह भी रागादिभाव रूप होने से हिंसा ही हैं, पाँच पाप (अवत) रूप कथन तो मात्र समझाने के लिए किया गया है। महाव्रतों की प्राप्ति तथा उनका पालन एक साथ होता है अलग-अलग किसी एक का नहीं। इस तरह ये एक साथ घटित होते हैं तथा एक साथ ही भंग भी होते हैं। अतः सभी महाव्रतों के परिपालन में ही श्रमणाचार की पूर्णता देखी जा सकती है। १. मूलाचार ५२१०-२११, भगवती आराधना १११८-१११९. २. जे ममाइय-मति जहाति, से जहाति ममाइयं-आचारांग २।६।१५६. ६. पुरुषार्थसिद्धय पाय ४२, संकाय पत्रिका-१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014028
Book TitleShramanvidya Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1983
Total Pages402
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size14 MB
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