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________________ २७२ श्रमणविद्या को यह भोजन संबंधी वस्तुओं को निर्दोष रूप में ग्रहण करने की विधि है । क्योंकि श्रमण न तो बल या आयु बढ़ाने के उद्देश्य से आहार करते हैं, न स्वाद और न शरीर उपचय या तेजवृद्धि के लिए ही । आहार ग्रहण का उनका उद्देश्य तो ज्ञान, संयम और ध्यान की सिद्धि है। अतः रूखा-सूखा, सरस या नीरस, ठण्डा या गर्म जैसा भी मिले यदि वह प्रासुक है तो उस आहार को समताभाव से ग्रहण करना चाहिए। उद्गमादि दोषयुक्त आहार लेना, मन, वचन, काय से आहार की स्वयं सम्मति देना, उसकी प्रशंसा करना, कराना और उसकी अनुमोदना करना-ये सब एषणा समिति के अतिचार हैं। ४. आदान-निक्षेप सूक्ष्म से भी सूक्ष्म जीवों की हिंसा न हो इस उद्देश्य से सावधानी पूर्वक देखभालकर ज्ञान, संयम, शौच तथा अन्य उपधि (वस्तुओं) को पिच्छिका से प्रमार्जन करके उठाना-रखना आदान-निक्षेप समिति है। ५. उच्चारप्रस्रवण (प्रतिष्ठापनिका या उत्सर्ग) इसका अर्थ है मल-मूत्र आदि के विसर्जन में निर्जन्तुक तथा निर्जन स्थान का ध्यान रखना। वस्तुतः श्रमण के निर्दोष एवं विवेकपूर्ण जीवन में समस्त विशुद्ध चर्याओं का ही विधान है। इस समिति का विधान भी मल-मूत्रादि को यत्र-तत्र त्याग के निषेध, लोकापवाद से रक्षा तथा अहिंसादि महावतों की रक्षा की दृष्टि से किया गया है। मूलाचारकार ने इस विषय में कहा है कि मल-मूत्र का विसर्जन ऐसे स्थान पर करना चाहिए जहाँ एकान्त हो, हरित वनस्पति तथा त्रस जीवों से रहित और गाँव आदि से दूर हो-जहाँ कोई देख न सके, कोई विरोध न करे, ऐसे विशाल-विस्तीर्ण क्षेत्र में मल-मूत्रादि का विसर्जन करना पंचम प्रतिष्ठापनिका या उत्सर्ग समिति है। इस योग्य कुछ स्थलों का मूलाचारकार ने उल्लेख भी १. वही ६।६२. २. भगवती आराधना विजयोदया टीका १६६२।७. ३. णाणुवहिं संजमुत्रहिं सउचुवहिं अण्णमप्पउवहिं वा । पयदं गहणिक्खेवो समिदी आदाणणिक्खेवा ॥ मूलाचार १।१४, ५।१२२. ४. एगते अच्चित्ते दूरे गूढे विसालमविरोहे । उच्चारादिच्चाओ पदिठावणिया हवे समिदी । वही १।१५. संकाय पत्रिका-१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014028
Book TitleShramanvidya Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1983
Total Pages402
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size14 MB
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