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श्रमण विद्या
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तौरार्थी' आदि । ये सभी शब्द पर्यायवाची होते हुए भी भ्रमण की विभिन्न विशेषताओं और उसकी आचार संहिता के विविध पक्षों को अभिव्यक्त करते हैं। इन सभी नामों का ऐतिहासिक विकासक्रम से अध्ययन किया जाए तो श्रमण शब्द अधिक प्राचीन प्रतीत होता है। वैदिक साहित्य के कई ग्रन्थों में भी "भ्रमण " शब्द जैन साधुओं के
लिए प्रयुक्त हुआ है ।
श्रमण
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श्रमण शब्द चार रूपों में उपलब्ध होता है- श्रमण, समण, समनस् और शमन । इनमें श्रमण शब्द प्राकृत भाषा के समण शब्द का ही रूपान्तरण है । श्रमण शब्द की निष्पत्ति श्रम धातु से हुई है । श्रमयन्ति आत्मानं तपोभिरिति श्रमणाः अर्थात् जो तपों के द्वारा अपनी आत्मा को श्रम युक्त करते हैं वे श्रमण कहलाते हैं । इस दृष्टि से हम कह सकते हैं कि " जो अपने ही श्रम से तप साधना के महापथ पर बढ़ते हुए मुक्ति लाभ करे अथवा जो आत्मा और परमात्मा के लिए तपस्या रूप श्रम से अपने शरीर को श्रान्त करे वह श्रमण है । सब जीवों को आत्मतुला की दृष्टि से देखनेवाले समतासेवी मुनि के अर्थ में समण (श्रमण ) शब्द मिलता है । प्रश्नव्याकरण में कहा है - जो समस्त प्राणियों के प्रति समभाव रखता हो वह श्रमण है ।" आचार्य कुन्दकुन्द ने श्रमण की परिभाषा देते हुए कहा है- जो शत्रु और बन्धु वर्ग में, सुख और दुःख में, प्रशंसा और निन्दा में, लोष्ट और कंचन में तथा जीवन और मरण में शम भाव है, वह श्रमण कहा जाता है । इस प्रकार भ्रमण सभी प्राणियों आदि के प्रति समताभाव रखने वाले तथा आत्मचिन्तन करने वाले होते हैं ।
समनस् का अर्थ राग-द्वेष रहित मनवाला - माध्यस्थवृत्तिवाला ।" तथा समन का अर्थ है पवित्र मनवाला । "
१. सूत्रकृताङ्ग २.१.१५.
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तैत्तिरीय उपनिषद् २.७, वृहदारण्यक उपनिषद् ४.३.२२, श्रीमद्भागवत स्क. पु. ५ अ० ३, वाल्मीकि रामायण सर्ग १८ पृ० २८, अष्टाध्यायी २१।७०. मूलाचारवृत्ति ९/१२०. ४. स्थानाङ्गनिर्युक्ति गाथा १५४. समे य जे सव्व पाणभूएस से हु समणे । — प्रश्नव्याकरण २.५. समसत्तुबंधुवग्गो समसुहदुक्खो पसंसणिदसमो ।
समलोकं चणो पुण जीविदमरणे समो समणो ।। प्रवचनसार ३.४१. ८. स्थानाङ्गनिर्युक्ति गाथा १५५, १५६.
मूलाचार ९।३७.
वही, टीका पृ० २६८.
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९.
संकाय पत्रिका - १
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