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________________ जैन परम्परा में श्रमण और उसकी आचार संहिता डॉ० फूलचन्द्र जैन प्रेमी प्राध्यापक एवं अध्यक्ष, जैनदर्शन विभाग श्रमणविद्या संकाय सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी श्रमणधारा भारत में अत्यन्त प्राचीनकाल से प्रवहमान है। पुरातात्विक, भाषावैज्ञानिक एवं साहित्यिक अन्वेषणों के आधार पर अनेक विद्वान् अब यह रवीकृत करने लगे हैं कि आर्यों के आगमन के पूर्व भारत में जो संस्कृति थी, वह श्रमण या आर्हत्-संस्कृति होनी चाहिए। यह संस्कृति सुदूर अतीत में जैनधर्म के आदिदेव तीर्थकर वृषभ या ऋषभ द्वारा प्रवर्तित हुई। श्रमण संस्कृति अपनी जिन विशेषताओं के कारण गरिमा-मण्डित रही है, उनमें श्रम, संयम और त्याग-जैसे आध्यात्मिक आदर्शों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। अपनी इन विशेषताओं के कारण ही अनेक संस्कृतियों के सम्मिश्रण के बाद भी इस संस्कृति ने अपना पृथक् अस्तित्व अक्षुण्ण रखा। जैनधर्म के अन्य नामों में आर्हत तथा श्रमण धर्म प्रमुख रूप में प्रचलित हैं। इसके अनुसार श्रमण की मुख्य विशेषतायें हैं.-उपशान्त रहना, चित्तवृत्ति की चंचलता, संकल्प-विकल्प और इष्टानिष्ट भावनाओं से विरत रहकर, समभाव पूर्वक स्व-पर कल्याण करना। इन विशेषताओं से युक्त श्रमणों द्वारा प्रतिपादित, प्रतिष्ठापित और आचरित संस्कृति को श्रमण संस्कृति कहा जाता है। प्राचीन जैन साहित्य में "श्रमण' के लिए अनेक नाम प्रयुक्त हुए हैं जैसेसमण, संयत, ऋषि, मुनि, साधु, वीतराग, अनगार, भदन्त, दान्त, यति' क्षान्त, भिक्षु, निर्ग्रन्थ, विरत, माहण, ज्ञानी, कृती, चरण-करण पारविद्, गुप्त, मुक्त, विद्वान्, १. समणो ति संजदो ति य रिसि मुणि साधु त्ति वीदरागो त्ति । णामाणि सुविहिदाणं अणगार-भदंत-दंतो ति॥ --मूलाचार ९।१२०, सूत्रकृताङ्ग २.१.१५. संकाय पत्रिका-१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014028
Book TitleShramanvidya Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1983
Total Pages402
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size14 MB
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