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________________ श्रमणविद्या प्रति नहीं था। अतः उनका आकर्षण अहिंसा की तरफ तब तक नहीं हुआ, जब तक यह संभावना खड़ी नहीं हो गई कि अहिंसा भी यथा सम्भव सुख और व्यवस्था का साधन बन सकती है। श्रमण जिस समाज में रहते थे वह बड़ा ही विषम और कोलाहलपूर्ण था । बुद्ध ने मानव प्रजा को थोड़े पानी में छटपटाती मछलियों के समान तड़फड़ाते देखकर, विश्व कितना भयाक्रान्त है, इसका अनुभव किया “फन्दमानं पजं दिस्वा मच्छे अप्पोदके यथा।" इसमें समता और शान्तिमूलक व्यवस्था अवश्य थी, अतः इसके लिए यह आवश्यक हुआ कि वे व्यक्तिगत अहिंसा का समाजोन्मुख प्रयोग करें। इन दोनों धाराओं के कारण शताब्दियों-शताब्दियों तक हिंसा और अहिंसा के सामर्थ्य तथा धर्म्य-अधर्म्य के सम्बन्ध में ऊहापोह एवं शास्त्रार्थ होता रहा। यह कार्य विचार और साधना के क्षेत्र में ही नहीं, प्रत्युत सामाजिक और व्यावहारिक क्षेत्र में भी हुआ। ___यद्यपि अहिंसा के विकास की दृष्टि से अब तक भारतीय इतिहास का परिशीलन नहीं किया गया है, तथापि इस प्रकार के अध्ययन के लिए पर्याप्त सामग्री विकीर्ण रूप में मिलती है। अति प्राचीन काल में जैनों में नेमिनाथ, पार्श्वनाथ और महावीर द्वारा किये प्रयोगों का संग्रह होना चाहिए। कहा जाता है कि तीर्थंकर नेमिनाथ के विरोध से विवाह आदि उत्सवों में होने वाले पशुओं का वध और मत्स्य, मांस, सुरा आदि जैसी फिजूलखर्ची बन्द हुई थी। काशीराज अश्वपति के कुमार पार्श्वनाथ ने उस समय की प्रचलित तपस्याओं द्वारा होने वाली अनेकानेक प्रकार की हिंसाओं का विरोध किया था। महावीर स्वामी के कार्यों का साक्ष्य प्राचीन जैनागमों में सुरक्षित ही है। भगवान् बुद्ध अहिंसात्मक आन्दोलन के प्रवर्तकों में महानायक हैं, जिन्होंने व्यक्ति, समाज और धर्म के क्षेत्र में प्रचलित हिंसा का एक साथ विरोध किया। उन्होंने अपनी आलोचनाओं से हिंसा के विरोध में केवल लोकमत ही तैयार नहीं किया, अपितु हिंस्र राजन्यों और ब्राह्मणों के बीच उपस्थित होकर हजारों-हजार यज्ञीय पशुओं को छोड़वाया और यज्ञयूपों को तोड़वाया। [देखें दी. नि. कूटदन्तसुत्त] उन्होंने अपने सैकड़ों सैकड़ों अनुयायियों को स्वयं अहिंसक आचरण एवं व्यवहार का प्रशिक्षण दिया, जो हिंसक समाज में पहुँच सद्धर्म का प्रचार करें तथा विरोधी के प्रति मरणान्त अपनी अहिंसक वृत्ति को न छोड़ें। बुद्ध का कहना था कि दोनों तरफ से डंडे और भाले चलते हों, उनकी चोट से अंग-अंग छिद गया हो, उतने पर भी हमारे अनुयायी के मन में दोस (द्वेष) आ जाए तो वह धर्मशासन की रक्षा नहीं कर सकता। इस परिस्थिति में घिरा हुआ व्यक्ति हिंसक को यह दिशा दे संकाय पत्रिका-१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014028
Book TitleShramanvidya Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1983
Total Pages402
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size14 MB
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