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________________ अहिंसा : अध्ययन की एक दिशा का समन्वित परिणाम है, जिसे हम परवर्ती काल की भारतीय संस्कृति में प्रतिफलित पाते हैं। किन्तु अहिंसा की मूल समस्या का हम तब तक आवश्यक विश्लेषण और समाधान नहीं कर पाएँगे. जब तक प्राचीन भारत की उन स्पष्ट दो धाराओं को ध्यान में नहीं रखेंगे, जिन्हें प्रवृत्ति और निवृत्ति अथवा ब्राह्मण और श्रमण अथवा ऋषि एवं मुनि अथवा हिंसक एवं अहिंसक नाम से जाना जाता है। इन दोनों प्रकार की धाराओं में भारतवर्ष का सम्पूर्ण बाह्य और आन्तर जीवन विभक्त रहा है । सम्पूर्ण भारतीय इतिहास में इस विभाजन को हम कभी अस्पष्ट, कभी ईषत् स्पष्ट और कभी अन्तर्लीन पाते हैं। वर्तमान भारतीय जीवन भी इस विभाजन से अछूता नहीं है। इन सूक्ष्म तथा स्पष्ट प्रवृत्तियों के विश्लेषण के बिना भारतीय जीवन के अन्तरंग को समझना सम्भव नहीं है, न तो इसके बिना भारतीय समाज को कोई निर्बाध दिशा ही दी जा सकती है। इन विकासधाराओं के समुचित ज्ञान पर ही अहिंसात्मक प्रयोगों का वर्तमान और भविष्य बहुत कुछ निर्भर है। भारतीय परिवेश में अहिंसा का अन्तर्राष्ट्रीय प्रयोग भी एक भिन्न प्रकार का ही होगा, इस तथ्य की ओर भी हमें ध्यान रखना होगा। अहिंसा : श्रमण एवं वैदिक अहिंसा का तत्त्व-ज्ञान और उसका प्रयोग श्रमणधारा की विशेषता है। इसका प्रारम्भ महावीर और बुद्ध से ही नहीं, प्रत्युत इसके प्रारम्भिक संकेत ऋग्वेद, ब्राह्मण ग्रन्थों तथा विभिन्न प्रकार के प्राचीन सांख्य सम्प्रदायों में भी मिलते हैं । सम्भवतः इस प्रकार के सभी विचारक प्राचीन श्रमण-धारा के अनुयायी थे। महावीर और बुद्ध ने अपने सामाजिक और धार्मिक आन्दोलनों से इसे ऐसा महत्त्व प्रदान किया, जिससे इसके अनुरूप एक ओर तत्त्वज्ञान और आचार का विकास हुआ, दूसरी ओर हिंसासम्मत यज्ञयागादि विविध कर्मकाण्डों का विरोध भी खड़ा हुआ। श्रमण शम-प्रधान और निवृत्तिवादी थे। इनका प्रधान कर्त्तव्य था जीवनशोधन और उद्देश्य था-दुःखनिवृत्ति या निःश्रेयस । ब्राह्मणों का उद्देश्य ऐहिक एवं आमुष्मिक सुखभोग था और उनका प्रधान प्रयास था समाज में एक ऐसे सुदृढ़ वर्ग की सुरक्षा एवं व्यवस्था, जिसे विद्या, रक्षा और धन की किसी प्रकार कमी न हो। निवृत्तिवादियों में भी सर्वांश में समानता नहीं थी। बुद्ध में अपने सद्धर्म के विस्तार का अदम्य उत्साह था। वह विशेष प्रज्ञा के प्रकाश में ही सम्भव था, अतः उन्होंने प्रज्ञा पर विशेष जोर दिया। महावीर ने व्यक्ति की शुद्धि और उसके आचार को विशेष महत्त्व दिया। दोनों में सम और शम, समता और शान्ति ऐसी समान मान्यताएँ थीं, जिन पर चलकर अहिंसा का विकास सम्भव होता। ब्राह्मणों का झुकाव सुख और व्यवस्था की ओर होने के कारण उनका विरोध विषमता, युद्ध या अशान्ति के संकाय पत्रिका-१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014028
Book TitleShramanvidya Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1983
Total Pages402
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size14 MB
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