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________________ २२८ श्रमणविद्या भाचार्य रत्नाकर शान्तिपाद का कार्यकाल प्रायः निश्चित है। यह पाल काल में अपाक या महीपाल के राज्य में ९७४ से १०२६ ई. के बीच अथवा ९७८ से १०३० के बीच विद्यमान थे। इनके समकालीन आचार्यों में मुख्य रूप से जितारि, दीपङ्कर श्रीज्ञान, अवधूतीपा, अभयाकर गुप्त, प्रशाकरमति, अद्वयवच, नारोपा आदि के नाम उल्लेखनीय हैं । ब्राह्मण कुल में इनका जन्म हुआ। मगध के उडन्तपुरी (वर्तमान विहार शरीफ) में इनकी जन्मभूमि थी । इनवी प्रारम्भिक दीक्षा सर्वास्तिवादी सम्प्रदाय में हुई। विक्रमशिल में जितारि (प्रायः ९. ई.) और नारोपा इनके गुरु थे। उनसे इन्होंने अनेक शास्त्र पढ़े । शास्त्रीय विद्वत्ता के अतिरिक्त इन्होंने योग तन्त्र के क्षेत्र में भी अदभुत प्रवीणता प्राप्त की। इसके लिए मालवा प्रदेश में जाकर इन्होंने ७ वर्षों तक कठिन योगाभ्यास भी किया। मालवा से विक्रमशिल लौटने पर सिंहल देश के राजदूत ने धर्म प्रचार के लिए इन्हें श्रीलंका निमन्त्रित किया । उसके आग्रह को स्वीकार कर इन्होंने छः वर्षों तक सिंहल द्वीप में धर्मप्रचार का कार्य किया। तारानाथ के अनुसार सिंहल जाते समय रामेश्वरम के समीप एक विशिष्ट यात्री को शिष्य बनाया, जो आगे चलकर सिद्धों में कुठालिया का कुदारिपा नाम से प्रसिद्ध हुए। सिंहल से लौटने पर महाराज महीपाल की प्रार्थना पर विक्रमशील विश्वविद्यालय के पूर्वद्वार के पण्डित पद पर प्रतिष्ठित हुए। तिब्बती परम्परा के अनुसार बाद में आचार्य ने इस विश्वविद्यालय के अध्यक्ष पद को भी अलंकृत किया। तारानाथ के अनुसार प्रारम्भ में यह सुप्रसिद्ध सोमपुरी विहार के स्थविर-अध्यक्ष भी रह चुके थे। आचार्य रत्नाकरशान्ति दर्शन के साथ योग एवं तन्त्र क्षेत्रों के भी प्रकाण्ड पण्डित थे। राहुल सांकृत्यायन के अनुसार इनके दर्शन ग्रन्थों की संख्या ९ है और तन्त्र पर २३ ग्रन्य मिलते हैं । विनयतोष भट्टाचार्य ने साधन माला की अपनी भूमिका में इनके १८ तन्त्र ग्रन्थों के नामों का उल्लेख किया है। इनकी विद्वत्ता की ख्याति न्याय और व्याकरण के क्षेत्र में भी थी। छोजुङ् में तिब्बती विद्वान् पद्माकरपी ने इन्हें व्याकरण और न्याय का महान् पण्डित स्वीकार किया है। रत्नाकरशान्ति विज्ञानवादी थे और उसमें भी निराकार विज्ञानवाद के पक्षधर थे। महापण्डित राहुल सांकृत्यायन को तिब्बत से प्राप्त हस्तलिखित ग्रन्थ-समूह में अद्वयवज्र की एक जीवनी से सम्बन्धित दो विच्छिन्न पत्र प्राप्त हुए थे, जिन्हें उन्होंने अपने दोहाकोश के परिशिष्ट में प्रकाशित कर दिया है .४ उससे ज्ञात होता है कि अद्वयवत्र ने रत्नाकर शान्ति के पास रहकर एक वर्ष तक विज्ञानवाद की निराकारवादी व्यवस्था का अध्ययन किया था । इसका समर्थन रत्नाकरशान्ति के वज्रतारासाधन से भी होता है। ४. परिशिष्ट सं० ६ पृष्ठ ४६९, दोहा कोश- सं० महापण्डित राहुल सांकृत्यायन, विहार राष्ट्रभाषा परिषद, पटना--.१९५७. ५. साधनमाला-सं० विनयतोष भट्टाचार्य, G.O.S. No-26. भाग-१. साधन सं० ११०, पृ० २२४. संकाय पत्रिका-१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014028
Book TitleShramanvidya Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1983
Total Pages402
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size14 MB
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