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________________ खसमानामटीका २२९ गगनोपम अद्वय-विज्ञप्ति के साक्षात्कार की स्थिति को स्पष्ट करते हुए आचार्य ने जो विशेषण दिए हैं, वे हैं- "भ्रान्तिसमारोपितं भ्रान्तिचिह्न सर्वधर्माणामाकारमपहाय तेषां प्रकृतिमेव केवलां अद्वयविज्ञप्तिलक्षणां शुद्धस्फटिकसंकाशां शरदमलमध्याह्नगगनोपमां अनन्तां पश्येत् ।” इस प्रकार आचार्य ने ज्ञान में प्रतिभासित होने वाले आकार को मिथ्या स्वीकार किया है । इस दृष्टि से चर्यागीतिकोष में उद्धत इनके दोहों का अभिप्राय भी मिथ्याकारवाद के साथ अधिक संगत होता है। इनके दार्शनिक गुरु आचार्य जितारिपाद सुप्रसिद्ध निराकारवादी थे। प्राचीन आचार्यों में रत्नाकर शान्ति का इस अर्थ में विशेष महत्त्व स्वीकार किया जाता है कि इन्होंने ऐसे ग्रन्थों की विज्ञानवादी व्याख्या की, जिन्हें सामान्यतः शून्यवादी धारा का माना जाता है। ऐसे ग्रन्थों में अभिसमयालंकार की उनकी टीका और पिण्डार्थ सुप्रसिद्ध हैं। जिसका मल संस्कृत में नहीं, भोटानवाद मात्र उपलब्ध है। इस खसमा टीका को भी आचार्य ने विज्ञानवाद, तत्रापि निराकारवाद के अनुकूल ही लिखा है। इनके सम्पूर्ण पक्षों पर अलग से एक विवेचन प्रस्तुत किया जा रहा है, जो संकाय पत्रिका के अगले अंक में प्रकाशित किया जाएगा । भोट सम्बन्धी कार्य में मेरे छात्र पण्डित श्री जितासेन नेगी तथा श्री बनारसीलाल ने सहायता की है । उन दोनों के लिये स्नेह-प्रकाश करने में मुझे हादिक संतोष मिलता है । -जगन्नाथ उपाध्याय चर्यागीति कोष-सं प्रबोधचन्द्र बागची एवं शान्ति भिक्षु शास्त्री विश्वभारती, शान्ति निकेतन 1956, च० गी० नं० १५ पृ० ५१. च० गी० नं० २६ पृ० ८६. संकाय पत्रिका-१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014028
Book TitleShramanvidya Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1983
Total Pages402
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size14 MB
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