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श्रमणविद्या
239) दाणस्साहारफलं को सक्कइ वणिउं भुवणयले । दिणेण जेण भोया लब्भंति मणच्छिया सव्वे ॥
240) दायारो उवसंतो मणवयकायेण संजुवो दच्छो । दाणे कय उच्छाहो पयडिय वच्छल्लगुणो य मडं ॥ 241) भत्ती सद्धाय खमा सत्तं चिय तह य लोहपरिचाओ । विष्णाणं तह काले छग्गुणा होंति दायारे ॥
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242) जह नीरं उच्छुगयं काले परिणवइ अमियरूवेण । तह दाणं वरपत्ते फलेइ भोएहि विविहिं ||
243) देहो पाणा रूअं विज्जा धम्मं तवो सुअं मोक्खं । सव्वं दिण्णं णियमा हवे आहारदाणेण ||
244) भुक्खसमा ण हु वाही अण्णसमा णं च ओसहं अत्थि । तम्हा तं दाणेण य आरोयत्तं हवे दिण्णं ॥
245) आहारमओ देहो आहारविणा पडेइ नियमेण । तम्हा जेणाहारो दिण्णो देहो हवइ तेण ||
246 ) ता देहा ता पाणा तत्त तवो जाणविण्णाणं । जवाहा पविस देहे जीवाण सोक्खयरो ॥
247) आहारासणे देद्दो देहेण तवो तवेण रयसडणं । रयणासे वरणाणं णाणिणमोक्खो जिणो भणइ ॥ 248) भुक्खाकयमरणभयं णासइ जीवाण तेण तं अभयं । सो एव हणइ वाही ओसदं तेण अत्थि आहारो ॥ 249) आयाराई सत्थं आहारबलेण पढइ णिस्सेसं । तम्हा तं सुयदा दिणं आहारदाणेण ||
250) महसी तिणदिणं पत्तविसेसेण होइ खीरफलं । सप्पस पुणो दिण्णं खीरं पि विसत्तणं कुणई |
संकाय पत्रिका - १
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