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श्रमणविद्या
vii) देवागमवृत्ति के अन्त में वसुनन्दि ने लिखा है
"श्रीमत्समन्तभद्राचार्यस्य त्रिभुवन लब्धजयपताकस्य प्रमाणनयचक्षुषः स्याद्वादशरीरस्य देवागमाख्यकृतेः संक्षेपभूतं विवरणं कृतं श्रुतविस्मरणशीलेन वसुनन्दिना जडम तिनात्मोपकाराय ।
समन्तभद्रदेवाय
परमार्थ विकल्पने । समन्तभद्रदेवाय नमोऽस्तु परमात्मने ॥ सुखाय जायते लोके वसुनन्दिसमागमः । तस्मान्निसेव्यतां भव्यैर्वसुनन्दिसमागमः ॥ इति वसुनन्द्याचार्यकृता देवागमवृत्तिः समाप्ता ॥'
"११
viii) स्तुतिविद्या या जिनशतक की वृत्ति के प्रारम्भ (श्लोक ६) में वसुनन्दि ने अपने नाम का उल्लेख इस प्रकार किया है
" स्तुतिविद्यां समाश्रित्य कस्य न क्रमते मतिः । तद्वृत्ति येन जाड्ये तु कुरुते वसुनन्द्यपि ॥ '
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उपर्युक्त सन्दभों से वसुनन्दि के वैदुष्य और सरल स्वभाव का पता चलता है, किन्तु व्यक्तिगत जीवन के विषय में अन्य आनकारी नहीं मिलती । देवागमवृत्ति के अन्य सन्दर्भों से जो तथ्य सामने आते हैं, उनके विषय में आगे चर्चा करेंगे ।
vix) वसुनन्दि ने उवासयज्झयण के अन्त में जो प्रशस्ति दी है, उसमें कहा है कि स्वसमय और परसमय के ज्ञाता कुन्दकुन्द की परम्परा में श्रीनन्दि हुए, जिनके शिष्य नयनन्दि नामक मुनि हुए । उनके शिष्य नेमिचन्द हुए । उनके प्रसाद से उवासयज्झयण रचा गया । प्रशस्ति का सम्बद्ध अंश निम्नप्रकार है।
"आसी ससमय पर समय विदू सिरिकुंदकुंदसंताणे ।
भव्वणवण सिसिरयरो सिरिनंदिणामेण ।। ५४० ।। 'संजाओ णयणं दिणाममुणिणो ॥ ५४२ ।।
सिस्सो तस्स सिस्सो तस्स "" णेमिचन्दु त्ति ॥ ५४३॥ तस्स पसाएण मया आइरियपरंपरागयं सत्यं । वच्छलयाए रइयं भवियाणमुवासयज्झयणं ।। ५४४ || "
1,93
यदि द्वारा रचित अपभ्रंश सुदंसणचरिउ की प्रशस्ति में ग्रन्थकार ने अपने ग्रन्थ को धार नरेश भोजदेव के समय वि० संवत् ११०० में रचा गया बताया है तथा अपने
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संकाय पत्रिका - १
समन्तभद्रग्रन्थावलि, देवागम पुष्पिका वाक्य ।
स्तुतिविद्या, वीर सेवा मंदिर, दिल्ली, सन् १९५० ।
वसुनन्दि श्रावकाचार, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, सन् १९५२ ।
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