SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 178
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तच्चवियारो नेमिचन्द सिद्धान्तचक्रवर्ती ने तिलोयसारो, पंचसंगहो', गोम्मटसारो लद्धि-खपणासारो आदि विशालकाय ग्रन्थ रचकर किया । परिमाण की दृष्टि से विशाल न होने पर भी स्वामीकार्तिकेय का अनुप्रेक्षा" ग्रन्थ तथा देवसेन का भावसंग्रह अत्यधिक महत्त्व रखते हैं । वसुनन्दि के उवासयज्झयन तथा तच्च वियारो का मूल्यांकन इसी संदर्भ में किया जाना चाहिए । शौरसेनी आगमिक परम्परा के प्रति सचेष्ट और प्रयत्नशील वसुनन्दि ने उवासयज्झयण और तच्चदियारो के द्वारा इस आगमिक परम्परा में एक नयी कड़ी को जोड़ा और उपासकों तक प्राचीन आगमिक मूल्यों को प्रसारित कर एक सच्चे उपाध्याय परमेष्ठी के कर्तव्य का पूरे दायित्व के साथ निर्वाह किया । 3. ग्रन्थकार i) तच्च वियारो की २९४ वीं गाथा में इसे वसुनन्दिसूरिरचित कहा गया है । ग्रन्थ की विषयवस्तु और उसकी पृष्ठभूमि को देखते हुए, इसे वसुनन्दि द्वारा रचित या दूसरे शब्दों में उनके द्वारा निबद्ध या संकलित मानने में कोई विप्रतिपत्ति नहीं है । ii) यह वसुनन्दि उवासयज्झयण के रचयिता से अभिन्न हैं, इसे मानने में भी कोई बाधक कारण नहीं है । iii) मूलाचारवृत्ति, देवागमवृत्ति तथा स्तुतिविद्या या जिनशतक की वृत्ति के रचयिता एक ही वसुनन्दि हैं तथा वे पूर्वोक्त दो ग्रन्थों के रचयिता से भिन्न नहीं हैं । iv) वसुनन्दि जैन आगमों की प्राचीन परम्परा को अक्षुण्ण बनाये रखने के पक्षधर थे । उक्त आधार- विन्दुओं को दृष्टिगत रखकर सुनन्दि के समय और उनके अवदान पर विचार करना होगा । v) तच्चवियारो में वसुनन्दि ने नाम निर्देश के अतिरिक्त अन्य कोई व्यक्तिगत जानकारी नहीं दी । vi) मूलाचार वृत्ति के अन्त में निम्नलिखित पद्य पाया जाता है"वृत्तिः सर्वार्थसिद्धिः सकलगुण निधिः सूक्ष्मभावानुवृत्तिराचारस्यात्तनोतेः परमजिनपतेः ख्यात निर्देशवृत्तेः । १५७ शुद्ध वक्यैः सुसिद्धा कलिमलमथनी कार्यसिद्धिर्मुनीनां स्थेयाज्जैनेन्द्रमार्गे चिरतरमवनौ वासुनन्दी शुभा वः ।। " ७. त्रिलोकसार, मा० च० ग्रन्थमाला, बम्बई वी० नि० सं० २४४४ | पंचसंग्रह, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, सन् १९६० । गोम्मटसार, भारतीय ज्ञानपीठ, वाराणसी, सन् १९८०-८१ । कार्तिकेयानुप्रेक्षा, परमश्रुत प्रभावक मंडल, आगास, सन् १९६० । ८. ९. १०. Jain Education International For Private & Personal Use Only संकाय पत्रिका - १ www.jainelibrary.org
SR No.014028
Book TitleShramanvidya Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1983
Total Pages402
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy