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________________ श्रमणविद्या आचार्य कुन्दकुन्द ने चरितपाहुड (गाथा 21-26) में इन्हीं ग्यारह श्रावक स्थानों घा उल्लेख करके श्रावकाचार का कथन किया है । कुन्दकुन्द के बाद स्वामी कार्तिकेय की अनुप्रेक्षा तथा देवसेन के भावसंग्रह में ठीक इसी क्रम से उपासकाचार का वर्णन है। वसुनन्दि का उवासयाज्झयण उक्त परम्परा के अनुसार ही सम्यक्त्व तथा श्रावक के ग्यारह स्थानों का विवेचन करता है। तच्चवियारो का प्रतिपादन ठीक इसी प्रकार का है । इस दृष्टि से इस ग्रन्थ का एक विशिष्ट महत्त्व है। वर्तमान में उपलब्ध अर्धमागधी आगम उवासगदसाओं में तीर्थंकर महावीर के १० प्रमुख उपासकों की कथाएं हैं। ये उपासक उपर्युक्त १९ श्रावकस्थानों, जिन्हें प्रतिमा कहा गया है, का पालन करते हैं। __ तच्चवियारो की एक सौ से अधिक गाथाएँ वसुनन्दि के उवासयज्झयण में लगभग ज्यों की त्यों उपलब्ध हैं। धर्म प्रकरण की गाथाएँ कत्तिगेयाणुवेक्खा की धर्मानुप्रेक्षा के अन्तर्गत विद्यमान हैं। देवसेन के भावसंग्रह में भी कई गाथाएँ समानरूप से प्राप्त हैं । जीवदया प्रकरण तथा लघुनवकारफल आदि की भी कतिपय गाथाओं से समानता है । इससे इस तथ्य की पुष्टि होती है कि वसुन न्दि को जो परम्परागत आगमिक गाथा सुत्त उपलब्ध हुए, उनमें से उन्होंने श्रावक के लिए विशेष महत्त्व के उपयोगी गाथा सुत्तों का एक संक्षिप्त संकलन निबद्ध कर दिया प्राचीन श्रुत परम्परा से चले आ रहे गाथा सुत्त संकलित करके निबद्ध करने का कार्य आचार्य धरसेन के समय से ही प्रारंभ हो गया था। कुन्दकुन्द के पाहुड सुत्त ग्रन्थों में कितने पारम्परिक गाथा सुत्त हैं और कितने उनके द्वारा स्वरचित, इनका अनुसन्धान एक ऐतिहासिक गवेषणा का विषय है। मूलाचार और भगवती आराधना तथा अर्द्धमागधी आगम और आगमिक ग्रन्थों में समान रूप से उपलब्ध होने वाले गाथा सुत्त इस बात को पुष्ट करते हैं कि तीर्थंकर महावीर के बाद श्रुत परम्परा से जो गाथा सुत्त मौखिक चले आ रहे थे, उनमें से अनेक शौरसेनी और अर्द्धमागधी दोनों परम्पराओं के ग्रन्थों में समान रूप से शब्दान्तर के साथ संकलित हुए। आगे चलकर उनके रूपान्तर-अर्थान्तर भी किये गये। बाद में शौरसेनी आगम परम्परा में इस प्रकार के संकलन का सबसे बड़ा कार्य ४. उवासगदसाओ, श्री आगम प्रकाशन समित्ति, व्यावर, १९८० । ५. मूलाचार, मा० च० दि० जैन ग्रन्थमाला, बम्बई, वि० सं० १९७७ । ६. भगवती आराधना, भारतीय ज्ञानपीठ, वाराणसी, दिल्ली १९७८ । संकाय पत्रिका-१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014028
Book TitleShramanvidya Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1983
Total Pages402
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size14 MB
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