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________________ तच्च वियारो १५५ आचार्यों द्वारा संस्कृत को लेखन के माध्यम के रूप में अपना लेने के साथ ही यह परम्परा अविच्छिन्न नहीं रह पायी । यही कारण है कि कुन्दकुन्द के बाद शौरसेनी प्राकृत में बहुत कम ग्रन्थ रखे गये । मूलाचार, भगवती आराधना, तिलोयपण्णत्ति, तिलोयसारो, गोम्मटसार. कत्तिगेयाणुवेक्खा, तथा भावसंगहो आदि ग्रन्थों को संस्कृत तथा देश्य भाषाओं की तुलना में देखा जाये तो स्पष्ट प्रतीत होता है कि शौरसेनी की आगम परम्परा की प्राकृत मूलधारा आगे चलकर अनेक धाराओं में प्रवाहित होने लगी और मूलधारा का जैसे स्वतन्त्र अस्तित्व ही नहीं रह गया । इस संदर्भ में वसुनन्दि जैसे कतिपय आचार्यों का कार्य ऐतिहासिक महत्त्व रखता है । वसुनन्दि ने तत्त्वविचार में जो विषय संकलित किये हैं, वे विषय तथा उनका प्रतिपाद्य सीधा शौरसेनी आगम परम्परा से जुड़ता है । वसुनन्दि के दूसरे ग्रन्थ उवासयज्झयण' को देखने से यह और अधिक स्पष्ट हो जाता है । सम्यक्त्व जैन आचार की दार्शनिक आधारशिला है, जिसपर श्रावक और साधु की आचारसंहिता का महाप्रासाद निर्मित होता है । सम्यक्त्व के अभाव में चरित्र सम्यक्चारित्र नहीं हो सकता है । इसलिए आचारग्रन्थों में सर्वप्रथम सम्यक्त्व का निरूपण किया गया है । वसुनन्दि ने भी श्रावक के आचार का प्रतिपादन करने के पूर्व सम्यक्त्व का निरूपण किया है। उसके बाद श्रावकाचार का निरूपण किया है | श्रावकाचार का निरूपण भी प्राचीन आगम परम्परा के ही अनुसार किया है। तीर्थंकर महावीर के उपदेशों का संकलन जिस द्वादशांग श्रुत में किया गया था, उसमें सातवें अंग को उवासयज्झयण कहा गया है । आचार्य वीरसेन ने षट्खंडागम की धवला टीका में इस अंग का परिचय निम्न प्रकार दिया है “उवासयज्झयणं णाम अंगं एक्कार सलक्खसत्तरिसहस्सपदेहिं 1170000-दंसण-वद-समाइय-पोसइ- सच्चित्त-राइभत्ते य । बम्हारंभ-परिग्गह-अणुमण - उद्दिट्ठ- देस विरदी य ॥ sa एक्कारसहिउवासगाणं लक्खणं तेसिं च वदारोपणविहाणं तेतिमाचरणं च वण्णेदि ।" - षट्खंडागम धवलाटीका भाग 1, पृ० 103 । कसा पाहुड की जयधवला टीका में भी उवासयज्झयण में उक्त ग्यारह प्रकार के श्रावक धर्म का उल्लेख बताया गया है । वसुनन्दिश्रावकाचार नाम से भारतीय ज्ञानपीठ, काशी द्वारा सन् 1952 में प्रकाशित । 2. षट्खंडागमः, जैन संस्कृति संरक्षक संघ, सोलापुर, द्वि० सं० 1973 । 3. कसायपाहुड भाग, पृ० 130, जैन संघ चौरासी, मथुरा । १. Jain Education International For Private & Personal Use Only संकाय पत्रिका - १ www.jainelibrary.org
SR No.014028
Book TitleShramanvidya Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1983
Total Pages402
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size14 MB
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