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हुआ । स्व० प्रो० पी० एल० वैद्य को इसका सर्वाधिक श्रेय है । विगत तीन दशकों में जैनविद्या और प्राकृत के अध्ययन के लिए कतिपय भारतीय विश्वविद्यालयों में स्वतन्त्र विभाग स्थापित हुए हैं । इनमें सामाजिक न्यासों द्वारा स्थापित 'इंडोवमेन्ट चेयर्स' सम्मिलित हैं । इनमें दक्षिण में मैसूर, मद्रास, धारवाड़, बिहार में वैशाली, मंगध; उत्तरप्रदेश में वाराणसी, राजस्थान में उदयपुर, जयपुर तथा महाराष्ट्र में कोल्हापुर और पूना उल्लेखनीय हैं ।
सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी भारत में ही नहीं, पूरे विश्व में एक ऐसा विश्वविद्यालय है, जिसने श्रमण परम्परा की जैन और बौद्ध दोनों प्रमुख धाराओं के अध्ययन के लिए एक स्वतन्त्र संकाय की स्थापना की, जिसमें प्राकृत और जैनदर्शन तथा पाली और बौद्धदर्शन के अध्ययन के लिए दो-दो स्वतन्त्र विभाग बनाये गये । इसके साथ ही यह भी उल्लेखनीय है कि यह विश्वविद्यालय पूर्वस्नातक से लेकर अनुसन्धानोपाधि तक के पाठ्यक्रम का संचालन और परीक्षा की व्यवस्था करता है ।
जैनविद्या और प्राकृत के स्वतन्त्र विभागों के साथ विश्वविद्यालयों के प्राचीन भारतीय इतिहास, कला, संस्कृति एवं पुरातत्व, दर्शन, समाजशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, अर्थशास्त्र, मनोविज्ञान, गणित आदि विभागों में भी जैनविद्या के विविध पक्षों पर अनुसन्धान कार्य हुआ है । संकाय पत्रिका श्रमणविद्या भाग - १ में 'हायर एजुकेशन एण्ड रिसर्च इन प्राकृतस् एण्ड जैनोलाजी' शीर्षक से मैंने इसका एक व्योरेवार विवरण दिया है ।
जैनविद्या और प्राकृत के अध्ययन - अनुशीलन का यह व्यापक प्रसार उसके अन्तरशास्त्रीय अध्ययन की सम्भावनाओं को मुखरित करता है । विगत दशकों में विभिन्न विश्वविद्यालयों में आयोजित संगोष्ठियों, सम्मेलनों, शिविरों, कार्यशालाओं आदि ने इसे और अधिक पुष्ट किया है । सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय के प्राकृत एवं जैनागम विभाग द्वारा आयोजित ऊपर उल्लिखित तीन आयोजनों से अन्तरशास्त्रीय अध्ययन की सम्भावनाओं को चरम बिन्दु तक स्थापित किया है । प्रस्तुत परिसंवाद इसकी एक बानगी मात्र है ।
जैनविद्या और प्राकृत के अध्ययन के उपर्युक्त प्रसार के समानान्तर कतिपय ऐसे तथ्य भी सामने आये हैं, जो इस अध्ययन के भावी संकट की ओर इंगित
परिसंवाद -४
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