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करते हैं। यद्यपि सभी प्राच्यविद्याओं का अध्ययन-अनुशीलन वर्तमान देश, काल और परिस्थितियों में एक विचित्र सांस्कृतिक संकट के दौर से गुजर रहा है और यह समग्र रूप से चिन्ता का विषय है; फिर भी यहाँ जैनविद्या और प्राकृत से सम्बद्ध पक्षों का निर्देश विशेष रूप से अपेक्षित है
विश्वविद्यालयों में जैनविद्या और प्राकृत के जितने पाठ्यक्रम चल रहे हैं, वे विषय की व्यापकता और समग्रता की दृष्टि से आमूल संशोधन की अपेक्षा रखते हैं।
जैनविद्या और प्राकृतों के लिए जिस जैन श्रमणधारा का सर्वाधिक और महनीय योगदान है, उस परम्परा के अनुयायियों में इसका अध्ययन निरन्तर क्षीण होता जा रहा है।
विश्वविद्यालयों में जो अध्यापन और अनुसन्धान कार्य हो रहे हैं, उनमें से अधिकांश शास्त्रीय परम्परा तथा प्राच्य भाषाओं के ज्ञान के अभाव में गुणवत्ता की दृष्टि से बहुत सामान्य, तथ्यों को दृष्टि से अपूर्ण और त्रुटिपूर्ण तथा समीक्षा और तुलनात्मक अध्ययन के नाम से अत्यन्त दोषपूर्ण हैं । इस कारण सांस्कृतिक अवदान का उज्ज्वल पक्ष उजागर होने के स्थान पर उसका विद्रूप प्रस्तुत हो रहा है। अपवादों की बात यहाँ नहीं है।
___ अन्य विषयों की तरह जैनविद्या और प्राकृत के अध्यापक तथा विद्यार्थियों में भी 'प्रोफेशनलिज्म' के बढ़ते प्रभाव से शास्त्र और सांस्कृतिक परम्परा का अन्तःप्रविष्ट अध्ययन-अनुशीलन क्रमशः समाप्त हो रहा है। अर्थोन्मुखी समाज व्यवस्था शिक्षा जगत् को जिन बुराइयों से ग्रसित कर रही है, उनसे अब धीरे-धीरे जैनविद्या और प्राकृत क्षेत्र भी प्रभावित हो रहा है ।
राष्ट्रीय स्तर पर आयोजित संगोष्ठी, सम्मेलनों आदि में एक मंच पर उपस्थित होकर विद्वान् मनीषी सामूहिक रूप से जैनविद्या और प्राकृत के अध्ययन-अनुशीलन के उज्ज्वल और कमजोर दोनों पक्षों की खुलकर समीक्षा करते हैं और त्रुटियों के निराकरण के विषय में एकजुट होकर चिन्तन करते हैं। इस प्रकार के सामूहिक चिन्तन और प्रयत्नों के फलस्वरूप हम आशान्वित हैं कि जैनविद्या और प्राकृत के अध्ययन-अनुशीलन को वह दिशा प्राप्त होगी, जिससे उसका लोकमंगलकारी अवदान सर्वसुलभ बने।
___इस परिसंवाद को पाठकों के हाथों सौंपते हुए हम अपने उन सभी मार्गदर्शकों, सहयोगियों और शुभचिन्तकों का स्मरण करते हैं, जिनका सम्बल प्राकृत एवं जैनागम
परिसंवाद-४
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