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________________ पहली बार पाश्चात्य जगत् ने इसका ऐतिहासिक महत्त्व स्वीकार किया। डॉ. रिचार्ड पिशेल ने प्राकृत भाषाओं का विशाल व्याकरण लिखकर यह स्पष्ट कर दिया कि 'प्राकृत' अनेक देश-भाषाओं के समूह का एक समुच्चय अभिधान है तथा विभिन्न प्राकृतों, अपभ्रशों का विकास नव्य भारतीय भाषाओं के रूप में हुआ है। इस व्यापक परिप्रेक्ष्य में प्राकृत भाषाओं और साहित्य का अध्ययन किया जाना चाहिए । भारत में 'आल इण्डिया ओरियंटल कान्फ्रेन्स' में 'प्राकृत एण्ड जैनिज्म' का एक स्वतन्त्र विभाग ( सेक्शन ) आरम्भ होने से जैनविद्या और प्राकृतों के अध्ययन को एक नयी दिशा और गति मिली। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में आयोजित कान्फ्रेन्स के अधिवेशन से प्रेरणा पाकर सन् १९४४ में काशी में भारतीय ज्ञानपीठ जैसी संस्था की स्थापना हुई। और सन् १९६८ में जब सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय में आल इंडिया ओरियेन्टल कान्फ्रेन्स का अधिवेशन हुआ तब अधिवेशन की पूर्व संध्या पर भारतीय ज्ञानपीठ की ओर से जैनविद्या पर एक संगोष्ठी का आयोजन किया गया। इसमें ज्ञानपीठ के संस्थापकों सहित प्रो० ए० एन० उपाध्ये जैसे अनेक वरिष्ठ विद्वान् सम्मिलित हुए। कान्फ्रेन्स के सन् १९६१ में श्रीनगर ( जम्मू-कश्मीर ) में सम्पन्न अधिवेशन से लेकर १९६९ में जादवपुर (पश्चिम बंगाल ) में आयोजित रजत जयन्ती अधिवेशन तक जैनविद्या और प्राकृत के अध्ययन-अनुशीलन की ओर बढ़ते हुए आकर्षण को मैंने प्रत्यक्ष देखा है। गत वर्ष १९८६ में कलकत्ता अधिवेशन तक कान्फ्रेन्स के माध्यम से जनविद्या और प्राकृत के प्रसार का जो परिदृश्य सामने आया है, उससे अब इसको समीक्षा अपेक्षित हो गयी है। ___ भारतीय विश्वविद्यालयों में संस्कृत, पालि, प्राकृत के अध्ययन के सम्मिलित विभाग 'डिपार्टमेन्ट ऑव क्लासिकल लेंग्वेजेज' की स्थापना से संस्कृत के साथ पाली और प्राकृत का अध्ययन-अनुशीलन प्रारंभ हुआ। इस प्रकार संस्कृत, पाली, प्राकृत, अपभ्रंश आदि प्राच्य भारतीय भाषाओं और साहित्य के व्यापक तथा सामासिक अध्ययन की प्रशस्त परम्परा चली। स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद यह स्वाभाविक था कि भारतीय संस्कृति की इस विराट, दीर्घकालव्यापी और वैविध्यपूर्ण विरासत के अध्ययन के लिए स्वतन्त्र प्रयत्न किये जायें। इसी उद्देश्य से संस्कृत तथा पाली या बौद्ध अध्ययन के स्वतन्त्र विभाग बने । प्राकृत का स्वतन्त्र अध्ययन सर्वप्रथम महाराष्ट्र में अर्धमागधी के नाम से आरम्भ परिसंवाद-४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014026
Book TitleJain Vidya evam Prakrit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1987
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size20 MB
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