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अनेकांत : महावीर का सत्यान्वेषण
डॉ. रामजीसिंह
। जहां तक जैन विचारधारा का प्रश्न है उसने श्री समन्वय की साधना में अद्वैत एवं विभज्यवाद की तरह । अनेकांत का आविष्कार किया। अनेकांत केवल कोई बौद्धिक व्यायाम नहीं, एक जीवनदर्शन है। यह । कोई विकल्पवाद नहीं, यह कोई संशयवाद नहीं, इसमें तो पूर्णता एवं यथार्थता दोनों हैं।
व्यक्ति सर्वज्ञ नहीं हो सकता सर्व सर्व म जानाति । फिर प्रकृति का रहस्य अत्यंत अटिल रहता है। इसलिए हमें यह अहंकार कभी नहीं करना चाहिए कि हम सब-कुछ जानते हैं। चाहे आत्मा के स्वरूप का प्रश्न हो या नैतिकता का या शरीर-आत्मा का संवैध, इनके संबंध में भिन्न दृष्टियां होगी।
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चार्य हरिभद्र ने योगदृष्टि सम्मुचय में बौद्ध एवं वैदिक दर्शनों ने भी स्वीकार किया है। भारतीय
धार्मिक साधन' की विविधताओं के विषय में चिंतन धारा की यह विशेषता है कि अहिंसा का क्षितिज लिखा है
केवल मानवों के लिए ही नहीं, मानवेतर प्राणियों के लिए यद्वा तत्तन्नयापेक्षा तत्कालाविनियोगतः।
खोल दिया। अभी भी जैनों के अलावा हिंदू-वैष्णव आदि ऋषिभ्यो देशना चित्रा तन्मूलैषापि तत्त्वतः।।
कई समाज के लोग निरामिष हैं। अहिंसा का पर्यायवाची (योगदृष्टि समुच्चय, श्लोक 138)
शांति तो वैदिक सभ्यता का प्राण है और वही शांति की
भावना मानव और पशु-पक्षियों से भी आगे वृक्षों एवं जल प्रत्येक ऋषि अपने देश, काल और परिस्थिति के
आदि तक विस्तृत है। 'द्यौ शान्तिः ' से लेकर 'आपः शांति', आधार पर भिन्न-भिन्न धर्म-मार्गों का प्रतिपादन करते हैं।
'अंतरिक्ष शांति' आदि मंत्र हैं। देश और कालगत विविधताएं तथा साधकों की रुचि और स्वभावगत वैविध्य धार्मिक साधनाओं की विविधताओं का
समन्वय की खोज में भगवान बुद्ध ने अहिंसा के आधार है। जब हम मान लेते हैं कि हमारी साधना पद्धति ही
आंतरिक पर्यायवाची 'करुणा' का आविष्कार किया। सचमुच
जब तक हृदय में करुणा, दया आदि के भावों का उद्रेक नहीं एकमात्र अंतिम साध्य तक पहुंचा सकती है, तभी
होता, अहिंसा टिक नहीं सकती। यूनेस्को की घोषणा में कहा असहिष्णुता का जन्म होता है। देश, काल, प्रवृत्ति और
गया है—'युद्ध का सूत्रपात मानव-मन से होता है अतः शांति योग्यता आदि ऐसे तत्त्व हैं जिनके कारण साधनागत
का दुर्ग भी मानव-मन से ही बनेगा। वस्तुतः भगवान बुद्ध की विविधताओं का होना आवश्यक है। जिससे व्यक्ति का
करुणा का आधार मानव-हृदय है। विचार के रूप में समन्वय आध्यात्मिक विकास होता है, वह आचार बाह्य विधि-निषेध ..
के लिए उन्होंने विभज्यवाद का सिद्धांत रखा। एकांश एवं या बाह्य कर्मकांड नहीं, साधक की भावना या जीवन-दृष्टि है।
भारत का वैभव इसका वैविध्य है, लेकिन बद्ध ने किसी प्रश्न का उत्तर 'हां' या 'नहीं' में देना पसंद नहीं विविधताओं के समन्वय की साधना भारत की अनुपम देन किया, बल्कि उसका विभाग करके दिया। इसी को है। इस सत्यान्वेषण में भारतीय मनीषा ने कई तरह के रूप विभज्यवाद कहते हैं। ब्रह्म जाल सुत में बुद्ध ने इसीलिए पाए। पहली खोज अहिंसा की हुई। अहिंसा समन्वय की शाश्वतवाद के साथ उच्छेदवाद दोनों को अस्वीकार कर साधना की ही एक प्रविधि है। विविधताओं या मझिम निकाय स्वीकार किया। संक्षेप में समन्वय की एक असामंजस्यताओं का समाधान हम हिंसा से भी कर सकते प्रविधि मध्यम-मार्ग ढूंढ़ना भी है। अरस्तु ने इसी को हैं या अहिंसा से। अहिंसा को केवल जैनों ने ही नहीं, बल्कि स्वर्णनियम (Golden Mean) कहा था। वैदिक विचारधारा
स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती
98. अनेकांत विशेष
मार्च-मई, 2002
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